तमाशे में मेरे, दिखाने को कुछ भी नहीं...

महफिल में कितनी तालियां, बजने को बेताब हैं,
क्या कहूं उनसे हाय, सुनाने को कुछ भी नहीं।
आज सूने चौक पर, ताकती आंखें कई,
पर तमाशे में मेरे, दिखाने को कुछ भी नहीं।
मैं वहीं, तू भी वहीं, शाम और शब भी वहीं,
धड़कनें नासाज हैं, जताने को कुछ भी नहीं।
आपने भी आने की देर से हामी भरी,
उजड़े मेरे दरबार में, सजाने को कुछ भी नहीं।
इक जरा सी बात पर वो फेर कर मुंह चल दिए,
और हमारे पास, मनाने को कुछ भी नहीं।
शाम देखो ढल चुकी, बढ़ रही काली घटा,
दिल भी नहीं, घर भी नहीं, जलाने को कुछ भी नहीं।
शमशीर ले कदमों पे तेरे अपनी गर्दन काट दूं,
इक लहू के सिवा, बहाने को कुछ भी नहीं।
ए खुदा चौखट पर तेरी, ढेरों सा लेकर आऊंगा,
बस यही इक `दर्द´ है, और लाने को कुछ भी नहीं।