मेरा अखबार





पत्रकारिता की खुजली के चलते मैंने अप्रेल 2005 में स्वयं का एक साप्ताहिक शुरू कर दिया था। अखबार चलाने के लिए पैसाखोरी हालांकि जरूरी थी, लेकिन मेरा उद्देश्य स्पष्ट पत्रकारिता थी। जितने अंक मैंने प्रकाशित किए, उनमें सबमें इसी बात का खासतौर से खयाल रखा गया था। शुरू के कुछ अंक यहां दिखाए जा रहे हैं। एक बार की बात है कि पैसों की तंगी की वजह से मैं नगरपरिषद अध्यक्ष के पास विज्ञापन के लिए गया और उनसे 10 हजार के विज्ञापन की मांग की। अध्यक्ष ने स्पष्ट कहा कि मेरी तो सैलेरी ही तीन हजार है बाकी के सात हजार कहां से लाऊंगा। चौथे एडिशन में उसी के खिलाफ एंकर स्टोरी छापी। तीसरे दिन अध्यक्ष साहब ने विज्ञापन जारी करवा दिया। तो पांचवे एडिशन में उन्हीं अध्यक्ष महोदय की लीड स्टोरी पक्ष में छाप दी। आजकल की पत्रकारिता तो यही है। अंत में आर्थिक समस्या और समयाभाव के चलते अखबार को बंद करना पड़ा। उस दिन मैं, मेरा भाई जो अखबार का संपादक था, और अखबार के अन्य सदस्यों के मन में जो उतार-चढ़ाव चल रहा था, आप अंदाजा नहीं लगा सकते। बहरहाल बात तीन-एक वर्ष पुरानी है। अब तो यह अखबार मेरा छोटा भाई छाप रहा है। मालवा (पंजाब) और श्रीगंगानगर (राजस्थान) दो जगहों से साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है।
`हरामी´ नहीं `हरामखोर´ पढ़ा जाए...
बात दस-एक साल पुरानी है। मेरा मित्र एक साप्ताहिक अखबार चलाता था। उस समय साप्ताहिक का बहुत क्रेज था। उसने एक अधिकारी के खिलाफ खबर छापी जिसमें `हरामी´ शब्द का प्रयोग किया था। अधिकारी ने कोर्ट का नोटिस भिजवा दिया। अगले एडिशन में बड़े-बड़े शब्दों में संशोधन छापा गया- कि अमुक खबर में हमने अमुक अधिकारी के खिलाफ `हरामी´ शब्द प्रयोग किया है, कृपया उसे `हरामखोर´ पढ़ा जाए।