भैणचो... एक था चौधरी

एक था हमारा साथी। नाम था चौधरी। पूरा नाम बोले तो परदीप (प्रदीप) चौधरी। श्रीगंगानगर शहर के अच्छे-खासे जमींदार परिवार का लड़का। इनका परिवार शहर से दो-चार किलोमीटर दूर ढाणी में रहता था। जाटों के बारे में आप सबने कहावत सुनी होगी- `सोलहा दुनी आठ´ यानिके हमेशा उल्टा चलते हैं।

तो चौधरी और दो-चार अन्य दोस्तों के साथ करीब दसेक साल पहले फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया गया। फिल्म थी- `बंद दरवाजा´ और शो था रात के 9 से बारह। थियेटर बेचारा ऐसी ही भूतिया और मिथुन चक्रवती की तमाम फिल्मों के साथ टाइमपास कर रहा था। जब हम फिल्म के लिए थियेटर में घुसे तो लगभग पूरा थियेटर खाली। सिर्फ छह मित्र हम और बाकी दो चार और लोग होंगे। बाकी सब जहां एंजॉय कर रहे थे। चौधरी आंख बंद कर सीट से गर्दन टिकाये सो रहा था। फिल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि भूत पहले तो किसी ताबूत में बंद होता है फिर उसे जगा दिया जाता है। भूत सबको मार सकता है, लेकिन नायक के पास भी नहीं आ सकता क्योंकि एक साधु बाबा ने नायक को ओउम का लॉकेट दिया होता है, जो नायक ने गले में पहन रखा होता है। आखिर में नायक भूत को फिर फांसी पर लटका देता है। फिल्म खत्म हुई। सभी थियेटर से बाहर आ गए। सभी लोग हंसते-हंसते बाहर निकल रहे थे, पर चौधरी का मुंह बिल्कुल उदास। जैसे ही दो मित्र आगे बढ़ जाते, चौधरी भागकर उनके साथ हो लेता। उसकी उदासी का कारण स्पष्ट था कि रात के बारह बज चुके हैं और उसका घर शहर से दूर................ और उसके जाना भी है अकेला..... क्योंकि सभी मित्रों के घर अलग-अलग जगहों पर थे। सभी साइकिलों पर आए थे। चौधरी की भी अपनी 24 इंची साइकिल थी, जो उसके कद के बराबर थी। शहर और उसके गांव के बीच में सिर्फ खेत ही थे। सभी सुबह ग्राउण्ड में मिलने का कहकर घर चले गए। चौधरी खुद की हाइट से बड़ी साइकिल पर चढ़कर ढाणी के लिए चला। अब आगे की कहानी चौधरी की जुबानी-

`थे भौं....कों मरा दियो। एक तो साइकिल पर पग कोनी टिक्कै हा। नैहर ऊं पार पुंचतां ही एक गंडकियो और लेर पड़ग्यो। ऊपर ऊं साइकल की चेन बोलै- चैं-चैं। आगै एक जांटी भी दिखगी जिंपै लाल कब्जो (ब्लाउज) टांग राख्यो हो। मैं तो बठै ही बैठग्यो कठै चुड़ैल लेर पड़ जाती तो जिंदगी की मा-भैण हो जाती। फेर एक ट्राली के लारै-लारै होकै घर पुंच्यो। पण आज ऊं जाब्तो कर लियो, अब भूत के बिंको बाप भी आ जै तो बिंकी भैण.... ´ सभी को चौधरी पर हंसी आ रही थी। उसके गले में लटकता `ओउम का लॉकेट´ भी दिखाई दे रहा था।

सातेक साल पहले या इससे भी पहले डीटीएच सुविधा लॉन्च हुई थी। चौधरी की ढाणी तक केबल नहीं जाती थी, सो उनका परिवार इस जैसी सुविधा का इंतजार ही कर रहा था। डीटीएच आते ही गंगानगर में पहला डीटीएच खरीदने वाला शायद चौधरी ही था। ढाणी में दो परिवार रहते थे- एक चौधरी का और दूसरा चौधरी के ताऊ का। तो एक ही डीटीएच से दोनों परिवारों को काम चलाना था। केबल भी खींच ली। लेकिन डीटीएच के साथ समस्या कि एक टीवी में जो चैनल चलेगा, वही दूसरे में भी चलेगा। रात के बारह बजे होंगे चौधरी ने डीटीएच ऑन कर दिया। उधर चौधरी का ताऊ भी अपने कमरे में बैठा टीवी देख रहा था। सेट-अप बॉक्स चौधरी के टीवी पर था, तो चैनल भी वही बदल सकता था। चौधरी उन्हीं चैनलों को ढूंढने लगा, जिसमें उसके मतलब का कुछ हो। उसे मिला भी पहले ही चांस में नागार्जुना और मनीषा कोइराला को रोमांस करते हुए उसने पकड़ लिया। वह सीन खत्म होते ही फिर चैनल बदल दिया। अबके अगले चेनल में रजा मुराद बेचारी परवीन बॉबी के पीछे पड़ा था और वह जोरों से चिल्ला रही थी। चौधरी को इसमें मजा आया और थोड़ी देर वह सीन देखा। खत्म होते ही चैनल फिर बदला। अगला सेट मेक्स था जिस पर विनोद खन्ना और माधुरी जी का `दयावान´ का प्रसंग चल रहा था। प्रसंग खत्म होते ही चौधरी दूसरे अन्य चैनल बदलने में व्यस्त ही था कि घर के बाहर से आवाज आई- `अरै परदीप, कोई चीज तो ढंग ऊं देख लेण दे...´। सर्दियों का टाइम था। परदीप चुपचाप टीवी ऑफ करके रजाई में दुबक गया। और सुबह जिंदगी में पहली बार बिना मां के प्रेशर दिए जल्दी तैयार होकर स्कूल चला गया।

सभी घटनाएं छह-सात साल पूर्व की ही है। क्योंकि मुझे अप्रत्यक्ष रूप से गंगानगर छोड़े लगभग पांच साल हो चुके हैं। एक दिन सुबह-सुबह चौधरी के घर पहुंचे तो देखा वो अपने घर के कुत्ते को डंडे और लातें मार-मारकर घर से बाहर निकाल रहा था और कुत्ता बार-बार `कू-कू´ करके घर में घुस रहा था। हमने जाकर चौधरी को समझाया भाई कुत्ते को क्यों मारता है, तो उसने जो बताया उसके अनुसार तो इस कुत्ते को कुत्ते की श्रेणी में ही नही गिना जाना चाहिए। चौधरी के अनुसार- `डेढ़ मैहना पेलां घरै चोर बड़ग्या, ओ भैणचो कानी ही कोनी देख्यो। बारै गंडकिया घूं-घूं करके चलजा ओ आंख ही कोनी उठावै। और घर को एक आदमी कोनी बच्यो, जिनै ओ भैणचो खायो कोनी होवै। चार दिन पेलां मेरी भैण नै खाग्यो। आज दादी इणै दूध घालै ई, लै बिनै ही खाग्यो। अब ओ ढाणी में दिखग्यो तो ईं गंडकिया की भैण .... ´

चौधरी मिथुन चक्रवती का बहुत बड़ा फैन था। उसकी लगभग हर फिल्म हमारे उसी पसंदीदा थियेटर में देखा करता था, लेकिन अगर पन्द्रह मिनट भी लेट हो जाता तो टिकट खरीदने के बावजूद थियेटर में नहीं घुसता था। उसे मिथुन इतना पसंद होने क्यों है यह राज हमें खुद चौधरी ने बताया- `कुण ईं भैण का टका भंगी को फैण है। ईं मिठुण की फिल्म तो ईं खातर देखूं कि फिलम की शुरूआत मैं ही ईंकी भैण चिप्पै है (यानी के हर फिल्म में मिथुन की बहन के साथ गलत होता है।) ´ और राज समझ आ गया कि पन्द्रह मिनट लेट होते ही वो फिल्म क्यों नहीं देखता था। `मिठुण की भैण `चिप´ चुकी होती थी...´

एक बार चौधरी को अंगे्रजी डब फिल्मों का जबरदस्त चस्का लगा। घर पर नया-नया सीडी प्लेयर आया, तो उसके साथ ही उसने दो-चार अंगे्रजी डब फिल्में भी खरीद लीं। चूंकि चौधरी जिम जाता रहता था, तो वहां लगे पोस्टरों के कारण अर्नाल्ड श्वाजनेगर के नाम से तो वह परिचित ही था। उसी की फिल्में चौधरी ने खरीद लीं। तो अब सारे घर के मिलकर फिल्म देख रहे थे। फिल्म का नाम याद नहीं, पर सीन ये है कि अर्नाल्ड अंधेरे कमरे में कुर्सी पर बैठा है और नायिका प्रवेश करती है। अर्नाल्ड ने आवाज टेप कर रखी है, जो सीरियल वाइज रिपीट कर-करके नायिका से बात करता है। इन्हीं बातों के दौरान नायिका और अर्नाल्ड में लड़ाई छिड़ जाती है। दोनों जबरदस्त लड़ते हैं। चौधरी के पापा ने इसी सीन को देखकर कहा कि क्या लाजवाब फिल्म है, ऐसी फिल्में इंडिया में नहीं बन सकती। चौधरी का सीना गर्व से फूल गया। दादा ने कहा कि बॉडी तो देख हीरो की। चौधरी ने अपनी मसल्स को हाथ लगाकर देखा। चौधरी के दो-एक मित्र भी बैठे फिल्म देख रहे थे, वे भी बोले- `इस्सी फिल्मां इंडया मैं बणज्याँ तो ओ अरनोलड तो आपणी ढाणी मैं ही दिखै...´ इतने में लड़ते-लड़ते अर्नाल्ड ने नायिका ने खड़े-खड़े ही अपनी जंघाओं पर पटक लिया और उसके होठों में अपने होंठ दे दिये। अब आपको तो मालूम ही है अंगे्रजी फिल्मों में इसके बाद लगभग दो-एक मिनट तो दृश्य चलता ही है। चौधरी इसी चिंता में बैठा रहा कि अभी खतम हो रहा है, अभी खतम हो रहा है। और चौधरी के पापा तो टेबल पर पड़ा अखबार उठाकर पढ़ने लग गए। दादाजी के खांसी शुरू हो गई। मम्मीजी खड़ी होकर रसोई में चली गई और चौधरी की भैण फि्रज साफ करने में जुट गई। लेकिन वह प्रणय दृश्य बहुत इंतजार के बाद भी खत्म नहीं हुआ, तो दादाजी ने चौधरी की गिच्ची (गर्दन) पकड़ ली- `अरै भैणचो तनै आ ही फिलिम मिली ल्याण नै। घरै मां-भैण की शरम भी कोनी रही।´ और जैसे ही चौधरी के दो झापड़ पड़े, फिल्म का दृश्य भी बदल गया। पर हम लोग आगे फिल्म नहीं देख पाए। दादाजी ने चौधरी से सीडी निकलवाकर नाले में फिंकवा दी।