पुरानी किताब के पन्ने

पड़ोसी मुसलमान कालू के घर रामायण देखते तीन बच्चे। फर्श पर बिछे गद्दों पर आराम से बैठा कालू, उसका परिवार। और ठंड के बावजूद फर्श पर बैठे तीनों- दो हम भाई और एक मौहल्ले का ही साथी, अब नाम याद नहीं। रामायण उन दिनों सबसे ज्यादा देखे जाने वाला सीरियल था। घर में टीवी नहीं, पर कालू का तो था। रामायण रात आठ से नौ बजे आता था या नौ से दस, पूरा-पूरा मालूम नहीं। पर जिस पर भी समय आता, एक दिन आधे धारावाहिक में ही कालू के परिवार को नींद आने लगी, तो कालू ने तीनों को `भागो-भागों करके घर से निकाल दिया। बचपन में इज्जत या बेइज्जती जैसी कोई बात नहीं होती। तीनों अगले दिन रामायण देखने फिर वहीं जाते, अगर पापा ने कालू को झटके के साथ दरवाजा बंद करते ना देखा होता। अगले दिन शाम को पापा रिक्शे में बैठकर एक बड़ा सा कार्टून लाते दिख गए। तब, जब मौहल्ले में एक मुश्त अठारह हजार का कलर टीवी खरीदने के बावजूद चर्चे नहीं हुए, उस समय हमारे बारह किश्तों पर लिए चौबीस सौ रुपए के लाल रंग के टेलीविस्टा बीडब्ल्यू टीवी के मौली बांधकर सवा पांच रुपए के पतासे बंटे।

घर में एक ही टेबल, जो मेहमानों की चाय के काम आती। कमरे की दीवार में बनी एक अलमारी में अखबार बिछाकर टीवी रखना, अभी याद है। पड़ोसी की दीवार के साथ गुजर रही केबल की तरफ एंटीना को घुमाकर डिश कैच करने की कवायद में तीन महीने बाद ही टीवी का नीचे गिर जाना और खराब हो जाना भी याद है। यह भी याद है कि पापा की मार से बचने के लिए चटाई पर सो रहे सबसे छोटे भाई का नाम बड़े कैसे लगा दिया करते हैं। आज खराब ही सही पन्द्रह साल बाद भी वह टीवी हमारे साथ है।

बड़े भाई के हायर सैकेण्डरी में हो जाने पर पापा पैदल ऑफिस जाते और अपनी साइकिल भाई को दे दी। फिर मेरे भी दसवीं पास कर लेने के बाद सैकेण्ड हैंड साइकिल खरीद दी गई। पापा के ऑफिस और हमारा स्कूल टाइम एक होने के बावजूद हम लोग पन्द्रह मिनट पहले निकल जाते। पापा साथ जाते तो रास्ते में मस्ती नहीं होती। स्कूल पास होते ही हमने साइकिल छोड़ दी। पर पापा आज भी उसी साइकिल से ऑफिस जाते हैं। ज्यादा होने पर कह देते हैं- `हम भी पुराने हो गए हैं, क्या हमें भी बदल दोगे?`

मेरे घर पर शेव करने पर पापा कई बार बता देते थे- बेटा ऐसे नहीं ऐसे कर, कट लग जाएगा। मुझे जाने क्यों बुरा लगता था। लगता था- पापा हर जगह नजर रखते हैं। आज मैं एक बच्चे का बाप हूँ, तो लगता है कि पापा सही थे।

पापा पचपन से ऊपर हो गए हैं। पैरों में दर्द रहता है। कई बार पैर दबाने को बोलते हैं। पैर दबाते-दबाते मैं पापा को सोया देखकर चुपके से कमरे से बाहर निकल जाता हूं। पापा जागे होने के बावजूद आंख नहीं खोलते और रात को दो बजे `ट्राइका` लेकर सो जाते हैं। लेकिन मैं हमेशा यह भूल जाता हूं कि एक बार मेरे बीमार होने पर पापा ने ऑफिस से छुट्टी ले ली थी और पूरे पन्द्रह दिन मेरे साथ हॉस्पिटल में रहे थे। क्या बस एक बार...?

पापा हर हाल में हमारी मांगी हुई चीज लाकर देते हैं। एक नहीं पचासों ऐसी बातें हैं, जो उन्हें सबसे अलग करती हैं। आज जब घर से दूर हूं, चार-एक महीनों में दो-एक दिन घर जाता हूं। तब पापा से मिलना होता है.... मैं जानता हूं कभी उन जैसा नहीं बन सकता।




घर के दर और दरवाजों की नींव सुनहरी मेरे अब्बा।
शाम-सवेरा, बादल-छतरी, धूप दुपहरी मेरे अब्बा।
घुप्प अंधेरे से जीवन में, एक कहकही मेरे अब्बा।