क्यों बे कुक्कड़ सो गया

क्यों बे कुक्कड़ सो गया,
बड़ा हरामी हो गया.....
छोड़कर तू क्या चला,
पत्रिका वीरान हो गया,
भास्कर में क्या गया,
इस जहाँ से खो गया.....
क्यों बे कुक्कड़ सो गया,
बड़ा हरामी हो गया.....
पांडे भी उदास है,
कुमावत तेरा दास है,
तू चला क्यों तू चला,
अमित बेटा रो गया......
क्यों बे कुक्कड़ सो गया,
बड़ा हरामी हो गया.....
फोकट के फ़ोन करता था,
ओवर टाइम पे मरता था,
काम क्या तू करता था,
एक गया वो दो गया........
क्यों बे कुक्कड़ सो गया,
बड़ा हरामी हो गया.....
ये कविता आज मैंने मेरे बहुत पुराने मित्र इंदर कुक्कड़ के लिए लिखी है। जो गंगानगर राजस्थान में भास्कर अखबार में काम करता है। अभी-अभी उसने पत्रिका छोड़ी है. आज उसकी याद इसलिए आ गयी क्योंकि अभी-अभी उससे फ़ोन पर बात हुई है। उसको कहा था मेरे ब्लोग देखना, तेरे लिए कुछ छोड़ रह हूँ। इसलिए लिख दी।
तू देख रहा है न कुक्कड़ .....................
ऊपर जो फोटो है वो भी पुरानी यादें ताजा करती है। २००३ में जब मैं भी भास्कर में था, तब की हम चार दोस्तों कि फोटो है- पहला मैं ही हूँ, दूसरा मनोज, तीसरा इंदर और चौथा जो खड़ा है, वो है राजेंदर छाबरा उर्फ 'CHHABIA'। उसकी एक सेटिंग थी- आशा। चलो राज को राज ही रहने दो, पर्दा जो उठ गया तो फिर उठ जाएगा.
- संदीप शर्मा