मां के कंगन
शहर में एक ऊंची बिल्डिंग बन रही है। ठेकेदार ने पहले जमीन की चारदीवार बनवा दी थी ताकि कोई सामान या मजदूर भी इधर-उधरना हो जाए। अब अंदर का काम चल रहा है। चार-
एक माले बन चुके हैं। पांचवे पर काम जारी है। मोहनराम वहीं बाहर चाय की थड़ी के पास खड़ा है। उनके झोंपड़े की मरम्मत हर बारिश के बाद होती है, फिर भी अगली बारिश को वह शायद ही झेल पाता है। तो इतनी ऊंची बिल्डिंग आखिर अगली बारिश तक कैसे टिकेगी, उसे समझ नहीं आ रहा था। पर उसे समझकर करना भी क्या था। थड़ी पर बैठ नहीं सकता था, सो खड़ा-खड़ा ही माथे के ऊपर हाथ रखकर ऊपर की तरफ देखकर मुस्कुरा रहा था। उसे इंतजार था बारिश का, और फिर धड़-धड़ाकर गिरते मकानों और इधर-उधर भागते लोगों। पर उसे क्या मालूम, यहां यह सब नहीं होता, ये उसका मौहल्ला थोड़े ही है, सड़क के लेवल से नीचे बना हुआ। चारदीवारी के अंदर शोर-शराबा मचा है। मोहनराम गंभीर होकर चारदीवारी के दरवाजे के पास चला जाता है।
एक आदमी चिल्ला रहा था- 'बुड्ढा दिखना नहीं चाहिए। कल दिहाड़ी मिलते ही बुखार हो गई। पीकर पड़ा होगा साला।' दूसरा आदमी उसकी बातों पर सिर हिला रहा था। जो आदमी चिल्ला रहा था वह ठेकेदार था।
'ओए दुर्गा...' ठेकेदार फिर चिल्लाया। दुर्गाप्रसाद तगारी नीचे रखकर भागकर उसके पास आ गया।
'कल से पांच आदमी और पकड़कर ला। मिल जाएंगे?' उसने कहा।
'हां जी। सुबह-सुबह ले आऊंगा।'
'कल का मतलब कल। आ जाने चाहिए।' ठेकेदार ने दुर्गा की आंखों में देखकर कहा। दुर्गाप्रसाद सर हिलाकर चला गया और फिर से तगारी उठाकर अपने काम में लग गया।
मोहनराम सारे वाकये को देख रहा था। उसे इस सबमें आनंद आ रहा था। अचानक उसे कुछ याद आया। वह रोज इसके लिए तो नहीं भटकता कि लोगों के झगड़े देखकर खुश हो ले। उसका मकसद तो कुछ और ही था। वह भागकर ठेकेदार के पास जाता है।
'बाबूजी' मोहनराम ने आवाज दी। ठेकेदार ने नहीं सुनी।
'बाबूजी ओ बाबूजी' मोहनराम ने फिर आवाज दी। अबकी उसने सुन ली।
'हां बोल' ठेकेदार ने रुखाई से कहा।
क'मुझे काम पर रख लीजिए।' मोहनराम ने कहा।
'कितने किलो का है तू?' ठेकेदार ने पूछा।
'पता नहीं...'
'पन्द्रह किलो की तगारी उठा लेगा?' ठेकेदार ने फिर पूछा।
'आधी तगारी उठा लूंगा बाबूजी।' मोहनराम उसकी ओर देख रहा था। ठेकेदार भी थोड़ी देर मोहनराम की तरफ देखता रहा।
'ओए दुर्गा ...' उसने जोर से आवाज दी। दुर्गाप्रसाद कुछ दूर काम कर रहा था। भागकर पास आ गया।
'इसे रख ले। और देख ढंग से काम करता है या नहीं?' उसने दुर्गाप्रसाद को कहा। 'रोज करेगा या आज-आज ही काम पर आएगा?' ठेकेदार ने मोहनराम की तरफ देखा।
'रोज आऊंगा' मोहनराम ने सर हिलाकर कहा।
'तू आधा काम करेगा इसलिए दिहाड़ी आधी दूंगा और दस दिन बाद दूंगा।' ठेकेदार ने कहा।
'बाबूजी आज-आज की तो दे देना। फिर बाद में दोगे, तो कोई बात नहीं।' मोहनराम ने कहा। दुर्गाप्रसाद कभी मोहनराम को कभी ठेकेदार को देख रहा था।
'साले दिखा दी...' ठेकेदार बोला। मोहनराम कुछ कहना चाहता था। ठेकेदार ने उसकी बात नहीं सुनी- 'ढंग से काम करे, तो कल से बुला लेना।' उसने दुर्गाप्रसाद को कहा। 'शामको मुझसे मिलकर जाना। चल अभी काम पर लग।' ठेकेदार ने मोहनराम को बिना देखे कहा।
मोहनराम दुर्गाप्रसाद के साथ चला गया। दुर्गाप्रसाद ने उसे केवल तगारी उठाकर पांचवे माले तक पहुंचाने का काम सौंपा था। एक आदमी सभी मजदूरों को तगारी में मसाला भरकर दे रहा था। मोहनराम की तगारी भी उसने भर दी। मोहनराम कुछ कहता उससे पहले ही दूसरी तगारी आगे आ गई। मोहनराम तगारी सर पर उठाकर चल पड़ा। पैरों में चप्पल नहीं थी। पूरी सीढ़ियों में जगह-जगह टूटे-फूटे ईंटें-पत्थर पड़े थे। पैरों में चुभ रहे थे। तगारी खाली करके आते समय उसने सोचा जाकर ठेकेदार को शिकायत कर दूं। दिहाड़ी आधी देगा, तो तगारी पूरी क्यों भर रहा है। पर फिर सोचा कहीं ठेकेदार नाराज हो गया, तो बना-बनाया काम हाथ से चला जाएगा। चुपचाप अपने काम में जुट गया। एक शब्द नहीं बोला। पैरों में कंकड़ चुभ रहे थे। सिर पर जाने कितने टन वजन। और पूरे शरीर को धूप छेदे जा रही थी। खाने की छुट्टी हुई। सभी मजदूरों ने टिफिन खोल लिए। मोहनराम भी पास ही एक दीवार की ओट में जाकर बैठ गया। रोज धूप बड़ी ठंडी होती थी, जाने आज क्या आग लग गई है।
'तू रोटी नहीं लाया।' पास से गुजर रहे दुर्गाप्रसाद ने पूछा।
'नहीं' मोहनराम ने सिर्फ इतना कहा।
'आजा मेरे साथ चल। दो रोटी तू खा लेना। चल खड़ा हो।' दुर्गाप्रसाद कहकर चला गया।
'आता हूं।' मोहनराम कहकर आकाश की ओर देखने लगा। पूरा शरीर टूट रहा था। एक बार आंख बंद की, तो नींद ही आ गई।
'मां... ओ मां...' मोहनराम घर पर चहकता हुआ पहुंचा।
'अरे पूरे दिन से कहां था। सब जगह ढूंढ लिया। कहां गया था।' मां ने उसे हाथ पकड़कर पास बैठा लिया।
'किसी काम से गया था।' मोहनराम ने कहा।
'कुछ खाया भी नहीं।' मां ने पूछा।
'तू ही तो खिलाती है। तूने खिलाया नहीं, तो मैं कहां खाता।' मोहनराम ने कहा।
'पूरे दिन से भूखा है मेरा बेटा। और इतनी धूप में बाहर भटक रहा था।' मां गुस्सा होने ही वाली थी।
'तू आंख बंद कर ना' मोहनराम ने कहा।
'क्यों...' मां उसे देखकर हंस दी।
'कर ना मां...' मोहनराम ने फिर कहा।
'ले' मां ने आंखें बंद कर दी। मोहनराम ने मां के चेहरे के सामने दो कंगन रख दिए। बहुत ही सुंदर थे। सोने की पालिस का मालूम ही नहीं चल रहा था। बिल्कुल सोने के लग रहे थे।
'अब आंखें खोल...' मोहनराम कहने ही वाला था कि अचानक उसे किसी ने हिलाया। ये दुर्गाप्रसाद था।
'काम पर नहीं लौटना। कितनी देर हो गई आवाज देते।' दुर्गाप्रसाद ने गुस्से से कहा।
मोहनराम चुपचाप उठा और काम पर लग गया। तगारी उठाई और ऊपर ले चला। सीढ़ियों में अंदाजा लगाता जा रहा था। पूरी दिहाड़ी अस्सी रुपए तो होगी ही। आधी कम से कम चालीस मिल जाएंगे। मां को पालिस वाले कंगन बहुत पसंद थे। ज्यादा तो नहीं पैंतीस रुपए के थे। पर जिसके पास काम ही ना हो, उसके लिए बहुत बड़ी रकम थी। मोहनराम कई दिनों से काम ढूंढ रहा था। आज उसे मिल गया। चालीस में पांच रुपए मां के हाथ में देगा। कंगन देखकर मां बहुत खुश होगी। ये दिन इतना बड़ा कैसे होता है। रोज तो दो घंटे में ही निकल जाता है आज अभी तक उसे काम करते पांच घंटे तो हो चुके हैं। अभी पांच घंटे और बाकी हैं। चलते-चलते अचानक एक पत्थर पर पैर टिक गया। तगारी पूरी भरी हुई थी। उससे संभला नहीं गया। सीढ़ियां नए डिजाइन की गोल बनी थीं। एक बार गिरा, तो गिरता ही चला गया। जब आंख खुली तो एक बिस्तर पर लेटा था। हाथ में कोई सुई चुभी होने का आभास हो रहा था। मां उसके पास ही बैठी थी। दुर्गाप्रसाद उसे रिक्शे से हॉस्पिटल छोड़ गया था। एक मजदूर को अंदाजा था कि मोहनराम नाले वाली कच्ची बस्ती में रहता है। अंदाजे-अंदाजे में सही घर पर पहुंच गया। मोहनराम के घायल होने का सुनते ही उसकी मां बदहवास सी भागकर अस्पताल आ गई थी। और मोहनराम के होश में आने का इंतजार कर रही थी। अब अस्पताल लाने के चार घंटे बाद उसे होश आया है। दवाईयों के लिए ठेकेदार ने दुर्गाप्रसाद को रुपए दे दिए थे। पूरे चालीस रुपए की दवाईयां आई थी। मोहनराम की मां ने हाथ-पैर जोड़कर ठेकेदार को धन्यवाद दिया। मोहनराम को डॉक्टर ने अभी इंजेक्शन लगाया था। उसे फिर से नींद आ गई।
मोहनराम नींद में एक बार बड़बड़ाया- 'माँ कंगन अच्छे हैं ना...'। मां पास ही बैठी उसका सिर सहला रही थी। सुनकर उसके आंखें भर आईं। दरिया बहने को आतुर था। अगर मोहनराम जाग जाता तो उसे जरूर कहती- बेटा तू है, तो मुझे कंगन की जरूरत क्या है और तू ही नहीं रहा, तो ऐसे कंगन का मैं करूंगी क्या। मोहनराम ने नींद में ही करवट ली और मां के हाथों पर अपना हाथ रख दिया। मां के आंसू बह निकले। इसी कमरे में और कई मरीजों के परिजन भी थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि उसका बेटा तो सही है, फिर भला यह औरत क्यों रो रही है।
(कहानी की थीम एक मित्र के ख्वाब से ली गयी है जो अपनी माँ को मोहनराम की तरह ही सोने के कंगन बनवाने का सपना संजोये है... उसका तो सपना तो सच होने वाला है और सच हो हमारी यही दुआ है...)

एक आदमी चिल्ला रहा था- 'बुड्ढा दिखना नहीं चाहिए। कल दिहाड़ी मिलते ही बुखार हो गई। पीकर पड़ा होगा साला।' दूसरा आदमी उसकी बातों पर सिर हिला रहा था। जो आदमी चिल्ला रहा था वह ठेकेदार था।
'ओए दुर्गा...' ठेकेदार फिर चिल्लाया। दुर्गाप्रसाद तगारी नीचे रखकर भागकर उसके पास आ गया।
'कल से पांच आदमी और पकड़कर ला। मिल जाएंगे?' उसने कहा।
'हां जी। सुबह-सुबह ले आऊंगा।'
'कल का मतलब कल। आ जाने चाहिए।' ठेकेदार ने दुर्गा की आंखों में देखकर कहा। दुर्गाप्रसाद सर हिलाकर चला गया और फिर से तगारी उठाकर अपने काम में लग गया।
मोहनराम सारे वाकये को देख रहा था। उसे इस सबमें आनंद आ रहा था। अचानक उसे कुछ याद आया। वह रोज इसके लिए तो नहीं भटकता कि लोगों के झगड़े देखकर खुश हो ले। उसका मकसद तो कुछ और ही था। वह भागकर ठेकेदार के पास जाता है।
'बाबूजी' मोहनराम ने आवाज दी। ठेकेदार ने नहीं सुनी।
'बाबूजी ओ बाबूजी' मोहनराम ने फिर आवाज दी। अबकी उसने सुन ली।
'हां बोल' ठेकेदार ने रुखाई से कहा।
क'मुझे काम पर रख लीजिए।' मोहनराम ने कहा।
'कितने किलो का है तू?' ठेकेदार ने पूछा।
'पता नहीं...'
'पन्द्रह किलो की तगारी उठा लेगा?' ठेकेदार ने फिर पूछा।
'आधी तगारी उठा लूंगा बाबूजी।' मोहनराम उसकी ओर देख रहा था। ठेकेदार भी थोड़ी देर मोहनराम की तरफ देखता रहा।
'ओए दुर्गा ...' उसने जोर से आवाज दी। दुर्गाप्रसाद कुछ दूर काम कर रहा था। भागकर पास आ गया।
'इसे रख ले। और देख ढंग से काम करता है या नहीं?' उसने दुर्गाप्रसाद को कहा। 'रोज करेगा या आज-आज ही काम पर आएगा?' ठेकेदार ने मोहनराम की तरफ देखा।
'रोज आऊंगा' मोहनराम ने सर हिलाकर कहा।
'तू आधा काम करेगा इसलिए दिहाड़ी आधी दूंगा और दस दिन बाद दूंगा।' ठेकेदार ने कहा।
'बाबूजी आज-आज की तो दे देना। फिर बाद में दोगे, तो कोई बात नहीं।' मोहनराम ने कहा। दुर्गाप्रसाद कभी मोहनराम को कभी ठेकेदार को देख रहा था।
'साले दिखा दी...' ठेकेदार बोला। मोहनराम कुछ कहना चाहता था। ठेकेदार ने उसकी बात नहीं सुनी- 'ढंग से काम करे, तो कल से बुला लेना।' उसने दुर्गाप्रसाद को कहा। 'शामको मुझसे मिलकर जाना। चल अभी काम पर लग।' ठेकेदार ने मोहनराम को बिना देखे कहा।
मोहनराम दुर्गाप्रसाद के साथ चला गया। दुर्गाप्रसाद ने उसे केवल तगारी उठाकर पांचवे माले तक पहुंचाने का काम सौंपा था। एक आदमी सभी मजदूरों को तगारी में मसाला भरकर दे रहा था। मोहनराम की तगारी भी उसने भर दी। मोहनराम कुछ कहता उससे पहले ही दूसरी तगारी आगे आ गई। मोहनराम तगारी सर पर उठाकर चल पड़ा। पैरों में चप्पल नहीं थी। पूरी सीढ़ियों में जगह-जगह टूटे-फूटे ईंटें-पत्थर पड़े थे। पैरों में चुभ रहे थे। तगारी खाली करके आते समय उसने सोचा जाकर ठेकेदार को शिकायत कर दूं। दिहाड़ी आधी देगा, तो तगारी पूरी क्यों भर रहा है। पर फिर सोचा कहीं ठेकेदार नाराज हो गया, तो बना-बनाया काम हाथ से चला जाएगा। चुपचाप अपने काम में जुट गया। एक शब्द नहीं बोला। पैरों में कंकड़ चुभ रहे थे। सिर पर जाने कितने टन वजन। और पूरे शरीर को धूप छेदे जा रही थी। खाने की छुट्टी हुई। सभी मजदूरों ने टिफिन खोल लिए। मोहनराम भी पास ही एक दीवार की ओट में जाकर बैठ गया। रोज धूप बड़ी ठंडी होती थी, जाने आज क्या आग लग गई है।
'तू रोटी नहीं लाया।' पास से गुजर रहे दुर्गाप्रसाद ने पूछा।
'नहीं' मोहनराम ने सिर्फ इतना कहा।
'आजा मेरे साथ चल। दो रोटी तू खा लेना। चल खड़ा हो।' दुर्गाप्रसाद कहकर चला गया।
'आता हूं।' मोहनराम कहकर आकाश की ओर देखने लगा। पूरा शरीर टूट रहा था। एक बार आंख बंद की, तो नींद ही आ गई।
'मां... ओ मां...' मोहनराम घर पर चहकता हुआ पहुंचा।
'अरे पूरे दिन से कहां था। सब जगह ढूंढ लिया। कहां गया था।' मां ने उसे हाथ पकड़कर पास बैठा लिया।
'किसी काम से गया था।' मोहनराम ने कहा।
'कुछ खाया भी नहीं।' मां ने पूछा।
'तू ही तो खिलाती है। तूने खिलाया नहीं, तो मैं कहां खाता।' मोहनराम ने कहा।
'पूरे दिन से भूखा है मेरा बेटा। और इतनी धूप में बाहर भटक रहा था।' मां गुस्सा होने ही वाली थी।
'तू आंख बंद कर ना' मोहनराम ने कहा।
'क्यों...' मां उसे देखकर हंस दी।
'कर ना मां...' मोहनराम ने फिर कहा।
'ले' मां ने आंखें बंद कर दी। मोहनराम ने मां के चेहरे के सामने दो कंगन रख दिए। बहुत ही सुंदर थे। सोने की पालिस का मालूम ही नहीं चल रहा था। बिल्कुल सोने के लग रहे थे।
'अब आंखें खोल...' मोहनराम कहने ही वाला था कि अचानक उसे किसी ने हिलाया। ये दुर्गाप्रसाद था।
'काम पर नहीं लौटना। कितनी देर हो गई आवाज देते।' दुर्गाप्रसाद ने गुस्से से कहा।
मोहनराम चुपचाप उठा और काम पर लग गया। तगारी उठाई और ऊपर ले चला। सीढ़ियों में अंदाजा लगाता जा रहा था। पूरी दिहाड़ी अस्सी रुपए तो होगी ही। आधी कम से कम चालीस मिल जाएंगे। मां को पालिस वाले कंगन बहुत पसंद थे। ज्यादा तो नहीं पैंतीस रुपए के थे। पर जिसके पास काम ही ना हो, उसके लिए बहुत बड़ी रकम थी। मोहनराम कई दिनों से काम ढूंढ रहा था। आज उसे मिल गया। चालीस में पांच रुपए मां के हाथ में देगा। कंगन देखकर मां बहुत खुश होगी। ये दिन इतना बड़ा कैसे होता है। रोज तो दो घंटे में ही निकल जाता है आज अभी तक उसे काम करते पांच घंटे तो हो चुके हैं। अभी पांच घंटे और बाकी हैं। चलते-चलते अचानक एक पत्थर पर पैर टिक गया। तगारी पूरी भरी हुई थी। उससे संभला नहीं गया। सीढ़ियां नए डिजाइन की गोल बनी थीं। एक बार गिरा, तो गिरता ही चला गया। जब आंख खुली तो एक बिस्तर पर लेटा था। हाथ में कोई सुई चुभी होने का आभास हो रहा था। मां उसके पास ही बैठी थी। दुर्गाप्रसाद उसे रिक्शे से हॉस्पिटल छोड़ गया था। एक मजदूर को अंदाजा था कि मोहनराम नाले वाली कच्ची बस्ती में रहता है। अंदाजे-अंदाजे में सही घर पर पहुंच गया। मोहनराम के घायल होने का सुनते ही उसकी मां बदहवास सी भागकर अस्पताल आ गई थी। और मोहनराम के होश में आने का इंतजार कर रही थी। अब अस्पताल लाने के चार घंटे बाद उसे होश आया है। दवाईयों के लिए ठेकेदार ने दुर्गाप्रसाद को रुपए दे दिए थे। पूरे चालीस रुपए की दवाईयां आई थी। मोहनराम की मां ने हाथ-पैर जोड़कर ठेकेदार को धन्यवाद दिया। मोहनराम को डॉक्टर ने अभी इंजेक्शन लगाया था। उसे फिर से नींद आ गई।
मोहनराम नींद में एक बार बड़बड़ाया- 'माँ कंगन अच्छे हैं ना...'। मां पास ही बैठी उसका सिर सहला रही थी। सुनकर उसके आंखें भर आईं। दरिया बहने को आतुर था। अगर मोहनराम जाग जाता तो उसे जरूर कहती- बेटा तू है, तो मुझे कंगन की जरूरत क्या है और तू ही नहीं रहा, तो ऐसे कंगन का मैं करूंगी क्या। मोहनराम ने नींद में ही करवट ली और मां के हाथों पर अपना हाथ रख दिया। मां के आंसू बह निकले। इसी कमरे में और कई मरीजों के परिजन भी थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि उसका बेटा तो सही है, फिर भला यह औरत क्यों रो रही है।
(कहानी की थीम एक मित्र के ख्वाब से ली गयी है जो अपनी माँ को मोहनराम की तरह ही सोने के कंगन बनवाने का सपना संजोये है... उसका तो सपना तो सच होने वाला है और सच हो हमारी यही दुआ है...)