एक मेरा फ्रेंड, एक उसकी गर्लफ्रेंड...
मेरा एक फ्रेंड, उसकी एक गर्लफ्रेंड। लड़का कुम्हारों का और लड़की प्योर राजपूत। ऊपर से उसके पिता पुलिस में। मैं और मेरा मित्र लगभग-लगभग
साथ-साथ ही रहते थे। ऑफिस में मेरा जूनियर था लेकिन गर्लफ्रेंड के मामले में सदा मेरा सीनियर रहा। मैं इस मामले में हमेशा से ही अनलकी हूं। मैंने आज तक सिर्फ और सिर्फ अपने मित्रों की गर्लफ्रेंडों से ही काम चलाया है, खुद की कभी बना ही नहीं पाया। अभी तो उस मित्र से बात हुए भी एक साल से अधिक हो गया, लेकिन जिस समय की स्टोरी चल रही है, वह कम से कम सात साल पुरानी है।
तो उन दोनों की 'सैटिंग' के बारे में लड़की के घरवालों को छोड़कर लगभग आधा मौहल्ला जानता था। लड़के की मां तो खासा परेशान रहती थी। इसीलिए तो साथ की दीवार मिलता घर होने के बावजूद मेरा मित्र लड़की से मिलने के लिए बहुत दूर तक जाता था। लड़के का नाम बताने की इच्छा नहीं, लेकिन लड़की का नाम बहुत प्यारा था-सुनिता। कई बार मेरे घरवालों के घर पर नहीं होने पर मैंने उन्हें मिलने का स्थान उपलब्ध करवाया था। बस इसीलिए सुनीता से जान-पहचान हो गई थी। मुझे वो बहुत अच्छी लगी। वैसे दूसरों की गर्लफ्रेंड मुझे हमेशा से ही अच्छी लगती रही हैं।
एक बार मेरा वही मित्र शहर छोड़कर हरियाणा में नौकरी करने चला गया। बस इसी दौरान एक दिन सुनीता का मेरे पास फोन आया कि उसे (लड़के का नाम) कह देना कि आज मम्मी बाजार गई हैं, शाम तक आएंगी। पापा भी ऑफिस गए हैं।
मैंने कहा- तो
उसने कहा- तो क्या वो मुझसे मिल लेगा।
मैंने कहा- और जो मैं मिलने आ जाऊं? उसने हंसकर मेरा निवेदन स्वीकार कर लिया।
मेरा यहां माथा ठनकना स्वाभाविक था कि जब आधे मौहल्ले को मालूम है- लड़का दो महीने से बाहर गया हुआ है, तो सुनीता को मालूम नहीं हो, एसा हो नहीं सकता। मित्र 400 किलोमीटर का सफर उड़कर तो आता नहीं। हो सकता है सुनीता ने मुझे ही निमंत्रण दिया हो।
नाइट ड्यूटी होने के कारण मैं रात 2 बजे तक तो आता था, फिर टीवी देखते-देखते सुबह छह बजे तक सोता था। 11 बजे सुनीता का फोन आया। आधी नींद में तो पहले से ही था। मैंने फटाक से नहाकर कपड़े पहने, परफ्यूम छिड़का और पैदल-पैदल चल पड़ा सुनीता के घर की तरफ। दो गलियों के बाद एक मेन रोड़ क्रॉस करके था उसका घर। जैसा कि मैंने बताया मेरे मित्र का घर भी उसके घर के बिलकुल साथ वाला था। तो ये डर अलग कि अगर उसकी मम्मी बाहर खड़ी हुई हो और मुझे सुनीता के घर जाते देख लिया, अपने बेटे के बिगड़े हुए दोस्तों की लिस्ट में मेरा नाम शुमार होना तय समझो। मेरी खुशकिस्मती उसकी मम्मी बाहर नहीं थी। सुनीता के घर का दरवाजा खुला हुआ और गैलरी में उसकी बहनें खेल रही थी।
मैंने दरवाजे से बाहर खड़ा होकर पूछा- गुडिया पापा हैं क्या।
मेरी आवाज सुनकर सुनीता अंदर से भागी आई और अपने होंठ हिलाते हुए आंखों से इशारा किया। उसकी आंखों से कुछ समझ नहीं आया पर होठों से जरूर मालूम चला कि वो शायद ´पा.पा... पा.पा´ बोल रही है। इतने में गैलरी में खेल रही लड़की ने जोर से आवाज दी- ´पापा बाहर कोई आया है।´
ऐसी स्थिति में मेरा क्या हाल हुआ, आप में से कईयों को बताने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि लगभग-लगभग आप सभी ऐसी स्थिति से गुजर चुके होओगे। मैं भागने की स्थिति में तो बिल्कुल भी नहीं था, क्योंकि वहां का मौहल्ला मुझे भी जानता था। कुछ औरतें घर के बाहर खड़ी बातें कर रही थी। अगर भागता तो स्पष्ट मेरा नाम आ जाता। सुनीता के घर से तीन घर छोड़कर ही एक गली थी। मैं धीरे-धीरे चल पड़ा। भगवान से दुआ करता हुआ कि बस इस गली तक पहुंचने तक सुनीता का बाप बाहर नहीं आए। गली में पहुंचने के बाद मैंने जो दौड़ लगाई, सीधा घर आकर ही रुका। यहां एक अनुभव मैंने किया कि सुनीता के घर से गली तक पहुंचने में जितना पसीना निकल गया, उतना एक मेन रोड और दो गलियां क्रॉस करने में नहीं निकला। यह मेरी खुशकिस्मती ही थी कि उस दिन सुनीता के पापा की तबीयत खराब थी और इसी कारण उन्होंने घर से बाहर आने में देर लगाई।
उसके बाद तीन दिन बाद जब सुनीता का फोन आया, तो दोनों हम एक-दूसरे से माफी मांग रहे थे। उधर से सुनीता कह रही थी मुझे माफ कर देना। और इधर से मैं कह रहा था- मुझे माफ कर देना। उसके बाद सुनीता से कभी मिलना हो नहीं पाया। अभी तक सुनीता और मेरे अलावा ये बात किसी को मालूम नहीं थी, आज सार्वजनिक हो चुकी है। शायद मेरे मित्र को भी मालूम चल जाए।

तो उन दोनों की 'सैटिंग' के बारे में लड़की के घरवालों को छोड़कर लगभग आधा मौहल्ला जानता था। लड़के की मां तो खासा परेशान रहती थी। इसीलिए तो साथ की दीवार मिलता घर होने के बावजूद मेरा मित्र लड़की से मिलने के लिए बहुत दूर तक जाता था। लड़के का नाम बताने की इच्छा नहीं, लेकिन लड़की का नाम बहुत प्यारा था-सुनिता। कई बार मेरे घरवालों के घर पर नहीं होने पर मैंने उन्हें मिलने का स्थान उपलब्ध करवाया था। बस इसीलिए सुनीता से जान-पहचान हो गई थी। मुझे वो बहुत अच्छी लगी। वैसे दूसरों की गर्लफ्रेंड मुझे हमेशा से ही अच्छी लगती रही हैं।
एक बार मेरा वही मित्र शहर छोड़कर हरियाणा में नौकरी करने चला गया। बस इसी दौरान एक दिन सुनीता का मेरे पास फोन आया कि उसे (लड़के का नाम) कह देना कि आज मम्मी बाजार गई हैं, शाम तक आएंगी। पापा भी ऑफिस गए हैं।
मैंने कहा- तो
उसने कहा- तो क्या वो मुझसे मिल लेगा।
मैंने कहा- और जो मैं मिलने आ जाऊं? उसने हंसकर मेरा निवेदन स्वीकार कर लिया।
मेरा यहां माथा ठनकना स्वाभाविक था कि जब आधे मौहल्ले को मालूम है- लड़का दो महीने से बाहर गया हुआ है, तो सुनीता को मालूम नहीं हो, एसा हो नहीं सकता। मित्र 400 किलोमीटर का सफर उड़कर तो आता नहीं। हो सकता है सुनीता ने मुझे ही निमंत्रण दिया हो।
नाइट ड्यूटी होने के कारण मैं रात 2 बजे तक तो आता था, फिर टीवी देखते-देखते सुबह छह बजे तक सोता था। 11 बजे सुनीता का फोन आया। आधी नींद में तो पहले से ही था। मैंने फटाक से नहाकर कपड़े पहने, परफ्यूम छिड़का और पैदल-पैदल चल पड़ा सुनीता के घर की तरफ। दो गलियों के बाद एक मेन रोड़ क्रॉस करके था उसका घर। जैसा कि मैंने बताया मेरे मित्र का घर भी उसके घर के बिलकुल साथ वाला था। तो ये डर अलग कि अगर उसकी मम्मी बाहर खड़ी हुई हो और मुझे सुनीता के घर जाते देख लिया, अपने बेटे के बिगड़े हुए दोस्तों की लिस्ट में मेरा नाम शुमार होना तय समझो। मेरी खुशकिस्मती उसकी मम्मी बाहर नहीं थी। सुनीता के घर का दरवाजा खुला हुआ और गैलरी में उसकी बहनें खेल रही थी।
मैंने दरवाजे से बाहर खड़ा होकर पूछा- गुडिया पापा हैं क्या।
मेरी आवाज सुनकर सुनीता अंदर से भागी आई और अपने होंठ हिलाते हुए आंखों से इशारा किया। उसकी आंखों से कुछ समझ नहीं आया पर होठों से जरूर मालूम चला कि वो शायद ´पा.पा... पा.पा´ बोल रही है। इतने में गैलरी में खेल रही लड़की ने जोर से आवाज दी- ´पापा बाहर कोई आया है।´
ऐसी स्थिति में मेरा क्या हाल हुआ, आप में से कईयों को बताने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि लगभग-लगभग आप सभी ऐसी स्थिति से गुजर चुके होओगे। मैं भागने की स्थिति में तो बिल्कुल भी नहीं था, क्योंकि वहां का मौहल्ला मुझे भी जानता था। कुछ औरतें घर के बाहर खड़ी बातें कर रही थी। अगर भागता तो स्पष्ट मेरा नाम आ जाता। सुनीता के घर से तीन घर छोड़कर ही एक गली थी। मैं धीरे-धीरे चल पड़ा। भगवान से दुआ करता हुआ कि बस इस गली तक पहुंचने तक सुनीता का बाप बाहर नहीं आए। गली में पहुंचने के बाद मैंने जो दौड़ लगाई, सीधा घर आकर ही रुका। यहां एक अनुभव मैंने किया कि सुनीता के घर से गली तक पहुंचने में जितना पसीना निकल गया, उतना एक मेन रोड और दो गलियां क्रॉस करने में नहीं निकला। यह मेरी खुशकिस्मती ही थी कि उस दिन सुनीता के पापा की तबीयत खराब थी और इसी कारण उन्होंने घर से बाहर आने में देर लगाई।
उसके बाद तीन दिन बाद जब सुनीता का फोन आया, तो दोनों हम एक-दूसरे से माफी मांग रहे थे। उधर से सुनीता कह रही थी मुझे माफ कर देना। और इधर से मैं कह रहा था- मुझे माफ कर देना। उसके बाद सुनीता से कभी मिलना हो नहीं पाया। अभी तक सुनीता और मेरे अलावा ये बात किसी को मालूम नहीं थी, आज सार्वजनिक हो चुकी है। शायद मेरे मित्र को भी मालूम चल जाए।