मेरी रचना


ना कोई साथ है, ना कोई पास है।
अपना भी दिन आएगा, बस उसकी तलाश है।

किसको करूं और क्या करूं, जाके मैं रपट,
मेरी दुश्मनी है जिससे, वो जाजम का खास है।

है बहुत छोटा ये पौधा, बरगदों के शहर में,
दोस्तों इस बात का, मुझको भी अहसास है।

रेत के टीलों में कुआ, कौन जाने है कहां,
ढूंढ-ढूंढ बूंद को, मिट गई जो प्यास है।

चार हों या आठ कंधे, मुझको क्या फरक,
उड़ गया परिंदा, रह गई बस लाश है।

उठ चलूं के अब तो मैं, आ तुझे संवार दूं,
सज गई सवारी, आ गए कहार है।

घूमता था बेधड़क जो, शायद आज मर गया,
मेरी गली में सुबहां से ही, लग रहे कयास है।