साब बड़े दयालु हैं
मंगला दिहाड़ी से आज जल्दी चला आया। मन में एक हलचल सी थी। लग रहा था जैसे धुक-धुक करती कोई चक्की चल रही हो। घर पहुंचते ही पार्वती ने पूछा था-क्या हुआ, जल्दी कैसे आ गए। पर मंगला जाने किन्हीं और ही खयालों में खोया हुआ था। पार्वती वही अपनी तेरह महीने पहले खरीदी साड़ी से ही गुजारा कर रही थी। चार साडि़यां थीं उसके पास। तीन तो पुरानी और एक थोड़ी सी नई, कुल मिलाकर पुरानी जैसी ही, लेकिन थोड़ी सही। इन्हीं तीनों साडि़यों को वह बदल-बदलकर गुजारा कर रही थी और चौथी साड़ी को कभी रिश्तेदारी में पहनती थी। दोनों बच्चे अभी भी मिट्टी में ही खेल रहे थे, एक कमरे का घर ही तो था, जिसमें दोनों मियां-बीवी और बच्चे रहते थे। वैसे उनके लिए वो कमरा ही बहुत बड़ी जागीर थी। पूरे चौबीस सौ रुपए में जो खरीदा था। एक दिन की दिहाड़ी पैंतालीस रुपए मिलती है मंगला को। उसमें सारे खचेü भी चलाने पड़ते हैं। ऊपर से काम ना हुआ, तो छुट्टी अलग। दस दिन तो काम ही नहीं होता था। पर आजकल तो काम ही काम है। रात को कई बार ओवरटाइम भी हो जाता है, तो साठ रुपए दिहाड़ी भी मिल जाती है। शहर में एक बड़ी इमारत बन रही है ना, मंगला भी वहीं दिहाड़ी पर जाता है।
आज दोपहर के बारह ही बजे होंगे। ठेकेदार आया था कार में बैठकर। मंगला को रौब दिखाते हुए हटाने की धमकी भी दी थी। कहा था-काम ढंग से नहीं करता, तेजी से हाथ चला। बहुत गुस्सा भी आया मंगला को, पर क्या करता। मालिक है, थोड़ा डांट दे तो कौन सा खून कम हो गया। ठेकेदार की डांट सुनकर सभी मजदूर अपने-अपने काम लग गए। जहां ठेकेदार खड़ा था, उससे तो बहुत दूर। सब जानते थे, पास फटके, तो अब उनकी बारी। चला गया ठेकेदार। मंगला की सांस में सांस आई। अचानक उसने नजर सामने की, तो देखा, जहां ठेकेदार खड़ा था, वहां एक भूरे रंग का बटुआ पड़ा है। शायद किसी और की भी नजर चली जाती, पर सभी दूर थे, और बटुए का रंग ईंटों से मिल रहा था, तो किसी को नहीं दिखा। मंगला ने चुपके से उसे उठाकर अपनी धोती में छुपा लिया। उसे मालूम नहीं था, बटुए में कितने पैसे थे, हो सकता है, कुछ ना हो। लेकिन एक मन कह रहा था- इतना बड़ा आदमी है ठेकेदार, बटुए में कम से कम पांच सौ रुपए तो रखेगा ही। लेकिन बटुए में है कितने रुपए, इसी कशमकश में मंगला का मन अब काम में नहीं लग रहा था। कहीं ठेकेदार आ गया, बटुए को ढूंढते-ढूंढते, तो रुपयों के साथ-साथ मैं भी गया। यही सोच-सोचकर मंगला बेचारा पसीने-पसीने हो रहा था। सिर में भी दर्द होने लगा। ड्यूटी खत्म होने में अभी भी चार घंटे बाकी थे। वो भागा-भागा सुपरवाइजर के पास गया और घर जाने के लिए छुट्टी मांग ली। सुपरवाइजर ने पहले तो थोड़ी-बहुत लताड़ पिलाई और उसके बाद आज के आधे पैसे ही मिलेंगे कहकर उसे भगा दिया। सुपरवाइजर को भी फायदा ही था, मंगला को तो आधी ड्यूटी के पैसे देगा और ड्यूटी पूरी दिखाकर आधे पैसे खुद खा जाएगा। घर कम से कम छह किलोमीटर दूर तो था ही। पैदल जाने में एक घंटा तो मान ही लो। वह जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था, ताकि देख सके बटुए में पैसे कितने है। रास्ते में ही बटुआ खोलने की मंगला की हिम्मत नहीं हो रही थी। अगर पांच सौ रुपए भी हुए तो पहला काम तो पार्वती को एक साड़ी लाकर दूंगा। बेचारी को शादी के बाद एक बार भी साड़ी नहीं लाकर दी। जब कभी पीहर जाती है, वहीं से लाती है। कल एक तो लाकर ही दूंगा। साठ-एक रुपए में तो आ ही जाएगी। पार्वती रोज कहती है, कुछ पैसे बचाकर एक स्टोव ला दो। चूल्हे में फूकनी चलाते-चलाते मेरी सांस फूल जाती है, दम घुटता है सो अलग। एक स्टोव भी ला दूंगा। रोज-रोज के स्यापे से तो अच्छा। भगवान आज-आज बचा लेना। आज के बाद कभी बेईमानी नहीं करूंगा। पार्वती और बच्चों की कसम। घर कब आ गया, पता ही नहीं चला। अंदर घुसा ही था, तो वही पार्वती ने पूछा, जल्दी कैसे आ गए। मंगला चुपचाप कमरे में खाट पर जाकर बैठ गया। पार्वती को कुछ शक तो हुआ। रोज पसीने में होकर आते हैं, आते ही पहले कुर्ता और बनियान उतारकर बाहर हवा में बैठते हैं। आज सीधे ही ना कुर्ता उतारा ना बनियान, अंदर इतनी गर्मी में जाकर कैसे बैठ गए, पर कुछ ना बोली और अपने काम में लग गई। मंगला ने ही आवाज देकर बुलाया उसे- अरे जरा सुनती हो, एक बात करनी है तुमसे। पार्वती आई, तो मंगला ने बटुआ निकालकर उसे दिखाया। पार्वती ने बटुआ खोला तो पांच-पांच सौ के पच्चीस और हजार के चार नोट। दो-चार सौ के भी थे पर पार्वती ने उन पर ध्यान नहीं दिया, बस इतना बोली कि एक-दो सौ के भी हैं। कुल मिलाकर सत्रह हजार। मंगला का तो सांस ऊपर हो गया। उसे लगा कि चार-पांच सौ रुपए होते तो चल भी जाता। पूरे सत्रह हजार रुपए। ठेकेदार को मालूम चल गया होगा कि मंगला जल्दी छुट्टी करके चला गया। मुझ पर ही शक जाएगा। वो जरूर पुलिस को लेकर आएगा। शाम के आठ बज गए थे। बच्चों ने आकर रोटी मांगी, तो पार्वती उठी और खाना बनाने चली गई, पर मंगला वहीं बैठा रहा। उसके मन में तो वही चल रहा था, बटुआ लौटा दंू या एक दिन रुकूं। रात हो गई। पार्वती ने समझाया, देखो जी कल वहां जाकर माहौल देख लेना, अगर लगे कि गड़बड़ है, तो अगले दिन बटुआ वहीं फेंक आना, कौन उठाए, कौन ना उठाए-देखना ही मत। इतना कहकर वह तो सो गई, पर मंगला को कहां नींद आनी थी। एक घंटेक नींद आई भी तो, आंख खुल गई और फिर सुबह पांच बजे तक ऐसेे ही सोया रहा। सात बजे तक नहा-धोकर वही धोती और कुर्ता पहना और रात की दो रोटी खाकर चल दिया अपनी दिहाड़ी पर। बटुआ तो रात को ही पार्वती की एक जो थोड़ी नई साड़ी पड़ी थी उसमें लपेटकर ऊपर टांड पर रख दिया था। दिहाड़ी पर पहुंचा तो सब पहले जैसा ही था। आज उन्हें पुराने काम के पैसे भी मिलने थे। ठेकेदार को भी आना था। मंगला को अभी भी चैन नहीं था। उसे लग रहा था कि ठेकेदार आएगा, तो पहले उसे ही चोर नजर से देखेगा। वो ठेकेदार के सामने कैसे खड़ा हो सकेगा। उसके तो कांपते हाथ देखकर ही ठेकेदार समझ जाएगा कि पैसे मंगला ने उठाए हैं। डेढ़ बजे के लगभग ठेकेदार आया, तो साथ में एक बैग ले रखा था। ठेकेदार और सुपरवाइजर करीब आधे घंटे तक दूर अकेले खड़े होकर बात करते रहे। बात तो वही चल रही थी-बटुआ गुम होने की। सुपरवाइजर ने सुझाव भी दिया, साब पुलिस को बता दो, वो खाल उधेड़ देगी, तो सब बता देंगे, पैसे कहां है। पर ठेकेदार इस बात पर राजी नहीं था, उसने कहा कि पचास मजदूर काम करते हैं, पुलिस किस-किस की खाल उधेडे़गी। अचानक ठेकेदार थोड़ा मुस्कुराया और सुपरवाइजर को इशारे में कुछ समझाया। सभी मजदूर दूर से ही देख रहे थे कि कब ठेकेदार आए और उनके दिहाड़ी दे। आगे-आगे सुपरवाइजर चल रहा था और पीछे-पीछे ठेकेदार। सुपरवाइजर ने आते ही मजदूरों की तरफ उदास शक्ल बनाकर कहा कि साब की बेटी की तबीयत बहुत नाजुक है। आज ऑपरेशन होना था, पन्द्रह हजार रुपए जमा कराने के लिए कल लाए थे, गुम हो गए। मालूम नहीं कहां गिरे हैं, आप लोग सभी मिलकर ढूंढोंगे, तो हो सकता है मिल जाए। साब कितने दयालु हैं इतना होने के बाद भी उधार लेकर पैसे आपको देने के लिए लाए हैं। मैंने कहा था पहले ऑपरेशन के लिए जमा करा दो, लेकिन ये नहीं मान रहे। ठेकेदार चुपचाप अपनी कार में बैठा और चला गया। सुपरवाइजर ने मजदूरों को हिसाब से दिहाड़ी दे दी। मजदूरों ने भी औपचारिकता दिखाते हुए कहा था कि साब हमें चाहे दस दिन बाद दे देना, पर ऑपरेशन के लिए रख लो। लेकिन मजदूरों ने एक बार ही कहा, उन्हें भी घर का राशन खरीदना था, उधारी चुकानी थी, सो दूसरी बार बोलने को मन ही मान रहा था। मंगला को भी दिहाड़ी तो मिल गई, लेकिन एक बोझ मन पर आ गया। काम पूरा कर घर के लिए निकल गया था। घर वही छह किलोमीटर दूर था। पूरे रास्ते कल वाली बात ही सोच रहा था- पार्वती की साड़ी तो जरूरी है, पर इस महीने थोड़ा तंग हो लेंगे, उसकी साड़ी तो ले ही आएंगे। स्टोव के बगैर तो हमारा काम चल ही रहा है, जरूरत भी क्या है, पर पैसे नहीं पहुंचे तो एक बेचारी जान चली जाएगी। मैंने यह क्या कर डाला, बटुआ कल ही दे देना चाहिए था। रास्ते भर अपने आपको कोसता रहा मंगला। घर न जाने कब आ गया। घर पहंुचा तो कल ही की तरह ना कुर्ता उतारा ना बनियान, सीधा कमरे में गया। टांड से साड़ी उतारकर उसमें से बटुआ निकाला और अपनी धोती में छुपा लिया। पार्वती चूल्हे में आंच दे रही थी। उसने सोचा, खाना बनाकर पूछूंगी- कोई गड़बड़ तो नहीं हुई, लेकिन मंगला तो आते ही फिर निकल लिया। पार्वती पीछे बोलती-बोलती रह गई। ठेकेदार का घर भी मंगला के घर से चार-एक किलोमीटर था। एक बार गया था वह ठेकेदार के घर, गमले उठवाने। मंगला के कदम तेज-तेज चल रहे थे, जैसे पंख लग गए हों। घर आ गया। घंटी बजाई, तो ठेकेदार की बेटी बाहर आई। मंगला ने पूछा- बेटी कैसी हो, अब तबीयत कैसी है। इतने में ठेकेदार बाहर आ गया और मंगला की तरफ देखने लगा। मंगला ने बटुआ आगे करते हुए कहा - साब गलत मत समझना। कल आपका बटुआ गिर गया था, तो मैंने ही उठाया था। मैं चोर नहीं हूं। बेटी का ऑपरेशन जरूरी है। मुझे पैसे नहीं चाहिए। मुझे माफ कर दो। ठेकेदार की बेटी मंगला को आश्चर्य से देख रही थी। पूछ बैठी- पापा किसका ऑपरेशन जरूरी है। इतनी देर जो आश्चर्य ठेकेदार की बेटी के चेहरे पर था, अब मंगला के चेहरे पर दिखने लगा और ठेकेदार के होंठ लंबे होते दिख रहे थे। ठेकेदार ने मंगला की पीठ थपथपाते हुए कहा कि तुम घर जाओ, मैंने तुम्हें माफ कर दिया। मंगला के चेहरे पर संतुष्टि के भाव आ गए, जैसे उसे कोई बड़ा पुरस्कार मिल गया हो। वह धीरे-धीरे चलते हुए घर पहुंचा। पार्वती के पूछने पर मंगला ने सारी कहानी बता दी। दोनों रात को चैन से सो गए। आज मंगला को सोते ही नींद आ गई। सुबह आंख भी देरी से खुली। आज तो दिहाड़ी पर लेट ही पहुंचना था। पर मंगला को मालूम था कि ठेकेदार साब ने सुपरवाइजर को सब बता दिया होगा। आज-आज तो मैं देर से भी जा सकता हूं। ठेकेदार के सत्रह हजार रुपए जो लौटाए हैं। मंगला दिहाड़ी पर पहुंचा तो सभी मजदूर उसे घूर-घूर कर देख रहे थे। सुपरवाइजर ने अपने पास बुलाया और कहा - आज से दिहाड़ी पर मत आना। तुम्हारी छुट्टी हो गई है। हिसाब तो कल पूरा हो गया था। साब ने तुम्हें पचास रुपए और देने को कहा है। अब कहीं और काम ढूंढ लो। मंगला समझ गया, बटुआ उठाने के कारण उसका काम जा रहा है- पर, पर साब ने तो मुझे माफ कर दिया था। सुपरवाइजर ने पचास का नोट पकड़ाते हुए कहा- साब ने माफ कर दिया है, तभी तो पुलिस को नहीं बुलाया और पचास रुपए अलग से दे रहे हैं। साब बड़े दयालु हैं। मंगला घर की ओर चल निकला। पूरे रास्ते सोचता चल रहा था- साब बड़े दयालु हैं। (- संदीप शर्मा)
आज दोपहर के बारह ही बजे होंगे। ठेकेदार आया था कार में बैठकर। मंगला को रौब दिखाते हुए हटाने की धमकी भी दी थी। कहा था-काम ढंग से नहीं करता, तेजी से हाथ चला। बहुत गुस्सा भी आया मंगला को, पर क्या करता। मालिक है, थोड़ा डांट दे तो कौन सा खून कम हो गया। ठेकेदार की डांट सुनकर सभी मजदूर अपने-अपने काम लग गए। जहां ठेकेदार खड़ा था, उससे तो बहुत दूर। सब जानते थे, पास फटके, तो अब उनकी बारी। चला गया ठेकेदार। मंगला की सांस में सांस आई। अचानक उसने नजर सामने की, तो देखा, जहां ठेकेदार खड़ा था, वहां एक भूरे रंग का बटुआ पड़ा है। शायद किसी और की भी नजर चली जाती, पर सभी दूर थे, और बटुए का रंग ईंटों से मिल रहा था, तो किसी को नहीं दिखा। मंगला ने चुपके से उसे उठाकर अपनी धोती में छुपा लिया। उसे मालूम नहीं था, बटुए में कितने पैसे थे, हो सकता है, कुछ ना हो। लेकिन एक मन कह रहा था- इतना बड़ा आदमी है ठेकेदार, बटुए में कम से कम पांच सौ रुपए तो रखेगा ही। लेकिन बटुए में है कितने रुपए, इसी कशमकश में मंगला का मन अब काम में नहीं लग रहा था। कहीं ठेकेदार आ गया, बटुए को ढूंढते-ढूंढते, तो रुपयों के साथ-साथ मैं भी गया। यही सोच-सोचकर मंगला बेचारा पसीने-पसीने हो रहा था। सिर में भी दर्द होने लगा। ड्यूटी खत्म होने में अभी भी चार घंटे बाकी थे। वो भागा-भागा सुपरवाइजर के पास गया और घर जाने के लिए छुट्टी मांग ली। सुपरवाइजर ने पहले तो थोड़ी-बहुत लताड़ पिलाई और उसके बाद आज के आधे पैसे ही मिलेंगे कहकर उसे भगा दिया। सुपरवाइजर को भी फायदा ही था, मंगला को तो आधी ड्यूटी के पैसे देगा और ड्यूटी पूरी दिखाकर आधे पैसे खुद खा जाएगा। घर कम से कम छह किलोमीटर दूर तो था ही। पैदल जाने में एक घंटा तो मान ही लो। वह जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था, ताकि देख सके बटुए में पैसे कितने है। रास्ते में ही बटुआ खोलने की मंगला की हिम्मत नहीं हो रही थी। अगर पांच सौ रुपए भी हुए तो पहला काम तो पार्वती को एक साड़ी लाकर दूंगा। बेचारी को शादी के बाद एक बार भी साड़ी नहीं लाकर दी। जब कभी पीहर जाती है, वहीं से लाती है। कल एक तो लाकर ही दूंगा। साठ-एक रुपए में तो आ ही जाएगी। पार्वती रोज कहती है, कुछ पैसे बचाकर एक स्टोव ला दो। चूल्हे में फूकनी चलाते-चलाते मेरी सांस फूल जाती है, दम घुटता है सो अलग। एक स्टोव भी ला दूंगा। रोज-रोज के स्यापे से तो अच्छा। भगवान आज-आज बचा लेना। आज के बाद कभी बेईमानी नहीं करूंगा। पार्वती और बच्चों की कसम। घर कब आ गया, पता ही नहीं चला। अंदर घुसा ही था, तो वही पार्वती ने पूछा, जल्दी कैसे आ गए। मंगला चुपचाप कमरे में खाट पर जाकर बैठ गया। पार्वती को कुछ शक तो हुआ। रोज पसीने में होकर आते हैं, आते ही पहले कुर्ता और बनियान उतारकर बाहर हवा में बैठते हैं। आज सीधे ही ना कुर्ता उतारा ना बनियान, अंदर इतनी गर्मी में जाकर कैसे बैठ गए, पर कुछ ना बोली और अपने काम में लग गई। मंगला ने ही आवाज देकर बुलाया उसे- अरे जरा सुनती हो, एक बात करनी है तुमसे। पार्वती आई, तो मंगला ने बटुआ निकालकर उसे दिखाया। पार्वती ने बटुआ खोला तो पांच-पांच सौ के पच्चीस और हजार के चार नोट। दो-चार सौ के भी थे पर पार्वती ने उन पर ध्यान नहीं दिया, बस इतना बोली कि एक-दो सौ के भी हैं। कुल मिलाकर सत्रह हजार। मंगला का तो सांस ऊपर हो गया। उसे लगा कि चार-पांच सौ रुपए होते तो चल भी जाता। पूरे सत्रह हजार रुपए। ठेकेदार को मालूम चल गया होगा कि मंगला जल्दी छुट्टी करके चला गया। मुझ पर ही शक जाएगा। वो जरूर पुलिस को लेकर आएगा। शाम के आठ बज गए थे। बच्चों ने आकर रोटी मांगी, तो पार्वती उठी और खाना बनाने चली गई, पर मंगला वहीं बैठा रहा। उसके मन में तो वही चल रहा था, बटुआ लौटा दंू या एक दिन रुकूं। रात हो गई। पार्वती ने समझाया, देखो जी कल वहां जाकर माहौल देख लेना, अगर लगे कि गड़बड़ है, तो अगले दिन बटुआ वहीं फेंक आना, कौन उठाए, कौन ना उठाए-देखना ही मत। इतना कहकर वह तो सो गई, पर मंगला को कहां नींद आनी थी। एक घंटेक नींद आई भी तो, आंख खुल गई और फिर सुबह पांच बजे तक ऐसेे ही सोया रहा। सात बजे तक नहा-धोकर वही धोती और कुर्ता पहना और रात की दो रोटी खाकर चल दिया अपनी दिहाड़ी पर। बटुआ तो रात को ही पार्वती की एक जो थोड़ी नई साड़ी पड़ी थी उसमें लपेटकर ऊपर टांड पर रख दिया था। दिहाड़ी पर पहुंचा तो सब पहले जैसा ही था। आज उन्हें पुराने काम के पैसे भी मिलने थे। ठेकेदार को भी आना था। मंगला को अभी भी चैन नहीं था। उसे लग रहा था कि ठेकेदार आएगा, तो पहले उसे ही चोर नजर से देखेगा। वो ठेकेदार के सामने कैसे खड़ा हो सकेगा। उसके तो कांपते हाथ देखकर ही ठेकेदार समझ जाएगा कि पैसे मंगला ने उठाए हैं। डेढ़ बजे के लगभग ठेकेदार आया, तो साथ में एक बैग ले रखा था। ठेकेदार और सुपरवाइजर करीब आधे घंटे तक दूर अकेले खड़े होकर बात करते रहे। बात तो वही चल रही थी-बटुआ गुम होने की। सुपरवाइजर ने सुझाव भी दिया, साब पुलिस को बता दो, वो खाल उधेड़ देगी, तो सब बता देंगे, पैसे कहां है। पर ठेकेदार इस बात पर राजी नहीं था, उसने कहा कि पचास मजदूर काम करते हैं, पुलिस किस-किस की खाल उधेडे़गी। अचानक ठेकेदार थोड़ा मुस्कुराया और सुपरवाइजर को इशारे में कुछ समझाया। सभी मजदूर दूर से ही देख रहे थे कि कब ठेकेदार आए और उनके दिहाड़ी दे। आगे-आगे सुपरवाइजर चल रहा था और पीछे-पीछे ठेकेदार। सुपरवाइजर ने आते ही मजदूरों की तरफ उदास शक्ल बनाकर कहा कि साब की बेटी की तबीयत बहुत नाजुक है। आज ऑपरेशन होना था, पन्द्रह हजार रुपए जमा कराने के लिए कल लाए थे, गुम हो गए। मालूम नहीं कहां गिरे हैं, आप लोग सभी मिलकर ढूंढोंगे, तो हो सकता है मिल जाए। साब कितने दयालु हैं इतना होने के बाद भी उधार लेकर पैसे आपको देने के लिए लाए हैं। मैंने कहा था पहले ऑपरेशन के लिए जमा करा दो, लेकिन ये नहीं मान रहे। ठेकेदार चुपचाप अपनी कार में बैठा और चला गया। सुपरवाइजर ने मजदूरों को हिसाब से दिहाड़ी दे दी। मजदूरों ने भी औपचारिकता दिखाते हुए कहा था कि साब हमें चाहे दस दिन बाद दे देना, पर ऑपरेशन के लिए रख लो। लेकिन मजदूरों ने एक बार ही कहा, उन्हें भी घर का राशन खरीदना था, उधारी चुकानी थी, सो दूसरी बार बोलने को मन ही मान रहा था। मंगला को भी दिहाड़ी तो मिल गई, लेकिन एक बोझ मन पर आ गया। काम पूरा कर घर के लिए निकल गया था। घर वही छह किलोमीटर दूर था। पूरे रास्ते कल वाली बात ही सोच रहा था- पार्वती की साड़ी तो जरूरी है, पर इस महीने थोड़ा तंग हो लेंगे, उसकी साड़ी तो ले ही आएंगे। स्टोव के बगैर तो हमारा काम चल ही रहा है, जरूरत भी क्या है, पर पैसे नहीं पहुंचे तो एक बेचारी जान चली जाएगी। मैंने यह क्या कर डाला, बटुआ कल ही दे देना चाहिए था। रास्ते भर अपने आपको कोसता रहा मंगला। घर न जाने कब आ गया। घर पहंुचा तो कल ही की तरह ना कुर्ता उतारा ना बनियान, सीधा कमरे में गया। टांड से साड़ी उतारकर उसमें से बटुआ निकाला और अपनी धोती में छुपा लिया। पार्वती चूल्हे में आंच दे रही थी। उसने सोचा, खाना बनाकर पूछूंगी- कोई गड़बड़ तो नहीं हुई, लेकिन मंगला तो आते ही फिर निकल लिया। पार्वती पीछे बोलती-बोलती रह गई। ठेकेदार का घर भी मंगला के घर से चार-एक किलोमीटर था। एक बार गया था वह ठेकेदार के घर, गमले उठवाने। मंगला के कदम तेज-तेज चल रहे थे, जैसे पंख लग गए हों। घर आ गया। घंटी बजाई, तो ठेकेदार की बेटी बाहर आई। मंगला ने पूछा- बेटी कैसी हो, अब तबीयत कैसी है। इतने में ठेकेदार बाहर आ गया और मंगला की तरफ देखने लगा। मंगला ने बटुआ आगे करते हुए कहा - साब गलत मत समझना। कल आपका बटुआ गिर गया था, तो मैंने ही उठाया था। मैं चोर नहीं हूं। बेटी का ऑपरेशन जरूरी है। मुझे पैसे नहीं चाहिए। मुझे माफ कर दो। ठेकेदार की बेटी मंगला को आश्चर्य से देख रही थी। पूछ बैठी- पापा किसका ऑपरेशन जरूरी है। इतनी देर जो आश्चर्य ठेकेदार की बेटी के चेहरे पर था, अब मंगला के चेहरे पर दिखने लगा और ठेकेदार के होंठ लंबे होते दिख रहे थे। ठेकेदार ने मंगला की पीठ थपथपाते हुए कहा कि तुम घर जाओ, मैंने तुम्हें माफ कर दिया। मंगला के चेहरे पर संतुष्टि के भाव आ गए, जैसे उसे कोई बड़ा पुरस्कार मिल गया हो। वह धीरे-धीरे चलते हुए घर पहुंचा। पार्वती के पूछने पर मंगला ने सारी कहानी बता दी। दोनों रात को चैन से सो गए। आज मंगला को सोते ही नींद आ गई। सुबह आंख भी देरी से खुली। आज तो दिहाड़ी पर लेट ही पहुंचना था। पर मंगला को मालूम था कि ठेकेदार साब ने सुपरवाइजर को सब बता दिया होगा। आज-आज तो मैं देर से भी जा सकता हूं। ठेकेदार के सत्रह हजार रुपए जो लौटाए हैं। मंगला दिहाड़ी पर पहुंचा तो सभी मजदूर उसे घूर-घूर कर देख रहे थे। सुपरवाइजर ने अपने पास बुलाया और कहा - आज से दिहाड़ी पर मत आना। तुम्हारी छुट्टी हो गई है। हिसाब तो कल पूरा हो गया था। साब ने तुम्हें पचास रुपए और देने को कहा है। अब कहीं और काम ढूंढ लो। मंगला समझ गया, बटुआ उठाने के कारण उसका काम जा रहा है- पर, पर साब ने तो मुझे माफ कर दिया था। सुपरवाइजर ने पचास का नोट पकड़ाते हुए कहा- साब ने माफ कर दिया है, तभी तो पुलिस को नहीं बुलाया और पचास रुपए अलग से दे रहे हैं। साब बड़े दयालु हैं। मंगला घर की ओर चल निकला। पूरे रास्ते सोचता चल रहा था- साब बड़े दयालु हैं। (- संदीप शर्मा)