डॉक्टर की चाय
जिंदगी हादसों की डगर है। रात का हादसा होता है, तभी सुबह का अहसास होता है। पाणीग्रहण का हादसा होता है, तभी बच्चों का सुखद आभास होता है। शेयर बाजार यूं तो कितना ही ऊपर चढ़ता रहे, लेकिन जब धड़ाम से गिरने का हादसा होता है, तो कइयों के लक्ष्मी का वास होता है। मेरे साथ भी एक हादसा घट गया। घटना जयपुर शहर के एसएमएस हॉस्पीटल की है।
रोज लेट उठने की आदत है। आज बिल पर सरकारी डॉक्टर की मोहर लगवाने के लिए हॉस्पीटल जाना था, सो मोबाइल में अलार्म लगाया। हॉस्पीटल 9 बजे खुल जाता है इसलिए साढ़े आठ का ही लगाया। करते-करते पौने नौ बजे तक उठ ही गया। नहा-धोकर और गैस पर दूध चढ़ा दिया। चाय नहीं पीता हूं ना, इसलिए सुबह-शाम एक गिलास दूध ले लेता हूं। साढ़े नौ के करीब हॉस्पीटल पहुंचा। मोटरसाइकिल खड़ी की, तो एक पतला सा लंबे बालों वाला आ गया, साइकिल स्टैंड वाला था। आगे लगाओ-आगे। मैंने आगे कर दी। और आगे लगाओ और आगे। गुस्सा आ गया मुझे- दीवार में घुसा दूं क्या। पे्रस है पे्रस। संयोग से जहां मोटरसाइकिल खड़ी की, उसके आगे पे्रस की दुकान थी। पे्रस वाले को लगा उसी के बारे में कह रहा हूं। मैं चलने लगा तो स्टैंड वाले ने पर्ची फाड़ दी- पांच रुपए। अरे मैंने कहा पे्रस है पे्रस- मैं जोर से बोला तो पे्रस वाला भी मेरी तरफ देखने लगा। उसे लगा उसके मौहल्ले में दूसरा पे्रस वाला कहां से आ गया। स्टैंड वाले ने अपने बालों में हाथ घुमाया और अदब से बोला- साब परेस के सामने खड़ी की तो क्या, रखवाली तो मैं ही रखूंगा। मैंने कहा- मेरे बाप मैं पे्रस में हूं। पत्रकार हूं। खबर लेने आया हूं। कारड दिखाओ- फिर बालों में हाथ घुमाया। मैंने भी एक हाथ जेब में, दूसरा बालों में घुमाया। जाओ- उसने बिना कार्ड देखे ही कहा। शायद उसे लगा वाकई पे्रस वाला है। मैंने मन में सोचा कि अजीब आदमी है, फोकट में हाथ जेब तक उठवा दिया। हम पे्रस वाले आलसी जो होते हैं, बिना किसी मतलब के हाथ नहीं उठाते। उससे पांच रुपए बचाकर मैं ऐसे महसूस कर रहा था, जैसे हजारों के नुकसान से बच गया। हो सकता है, उधर वो भी गाली निकाल रहा हो- आ जाते हैं साले- परेस है परेस। तनखा नहीं मिलती, जो हमारे पैसे खा जाते हैं। चलो जैसा भी हो मैं तो चल पड़ा सत्रह नंबर कमरे की ओर। अरे हड्डी सही करने वाले डॉक्टर बैठते हैं, एक बार टूट गई थी, उसी के बिल के चक्कर में चालीस चक्कर लगा लिए। चालीस कैसे- छह महीने पहले हड्डी सही होते ही पहली बार आया था, शुक्रवार को। कंपाउंडर बिल और पर्ची देखकर बोला- तीन दिन बाद आएंगे डॉक्टर साब। मैंने कहा- भाई इतने बैठे हैं, किसी से ही साइन करवा दो। थोड़ी देर तो वो दूसरे से बात करता रहा, फिर मेरी तरफ ऐसे ऐसे बोला जैसे बोलकर ही अहसान कर रहा हो- ऐसे कैसे करवा दूं, जिस डॉक्टर ने इलाज किया, वो ही तो साइन करेगा, कोई और क्यों करेगा। मैंने कहा- ऐसे कैसे नहीं करेगा, पे्रस है। वो भी बेचारा तंग आ गया- पे्रस है, तो बाहर करो, यहां कोई नहीं करवाएगा। साथ बैठी एक नर्स हंसने लगी। मैं तो बिलकुल शांत, जैसे किसी ने मेरी गर्म पे्रस पर पानी çछड़क कर ठंडा कर दिया हो। अच्छा भाईसाहब सोमवार को आ जाऊं, हो जाएंगे साइन- मैंने बिलकुल प्यार से कहा। उसकी रजामंदी लेकर चल पड़ा। उसके बाद हर हफ्ते सोमवार को छोड़कर एक-आध दिन चक्कर लगता ही रहा। छह-एक चक्कर यानी करीब डेढ़ महीने बाद पता चला, वो डॉक्टर बैठता ही सोमवार को है। मैं तो भिड़ गया कंपाउंडर से- पे्रस से हूं। पास में नर्स बैठी थी, हंसने लगी। कंपाउंडर ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मुझे फोकट में बीपीएल की दवाइयां दिलवाता हो। शायद वो अभी डॉक्टर की झाड़ सुनकर आया था। उसका चेहरा देखकर मेरा गुस्सा थोड़ा शांत हुआ- यार इंसानियत नाम की एक चीज होती है। है के नहीं। रोज आता हूं, तू रोज कहता है, आज डॉक्टर नहीं है। बता नहीं सकता- वो सोमवार को ही आता है। कंपाउंडर भी भड़क गया- तूने पूछा कब। तू रोज पूछता है, डॉक्टर है, मैं कहता हूं नहीं। जितना पूछेगा, उतना जवाब ही तो मिलेगा। मैंने कहा- अच्छा भाई माफ कर दे मुझे। गलती मेरी ही है, जो तुझ जैसे बड़े ज्ञानी से पूछा, छोटे से पूछना चाहिए था। नर्स अभी भी हंस रही थी। उसकी हंसी बेचारी बड़ी कातिल थी। चलो उस दिन भी मैं अपना सा मुंह लेकर ही आ गया। उस दिन के बाद पूरे बत्तीस चक्कर और लगा दिये। कुल मिलाकर आज उनचालीसवां है। कभी डॉक्टर नहीं होता, तो कभी डॉक्टर के पास टाइम नहीं होता। कंपाउंडर मुझे पहचानने लग गया था और नर्स भी। अब तो जब नर्स की याद आती मैं सोमवार के अलावा कभी भी चक्कर लगा लेता और नर्स से ही पूछता- डॉक्टर साब नहीं है क्या।
ये क्या आप तो पुरानी कहानी ही पढ़ रहे हैं और मैं सत्रह नंबर कमरे के सामने पहुंच भी गया। बाहर लंबी लाइन लगी थी। अंदर डॉक्टर के सामने उससे भी लंबी। सिक्योरिटी गार्ड गेट पर ही खड़ा था, ताकि और कोई भी अंदर ना जा सके। मैंने कहा- भाईसाहब, ओ भाईसाहब। कोई रिएक्शन नहीं मिला। मैंने फिर कहा- भाईसाहब, ओ भाईसाहब। क्या है- वो बोला। मैंने बड़े प्यार से कहा- पे्रस है, डॉक्टर से मिलना है। बेचारा शायद नया था, बिना किसी सवाल के अंदर जाने दिया। अंदर इतनी भीड़ देखकर मेरा मन नहीं माना कि सबसे बाद में आकर भी पहले अपना काम करवा लूं। या यूं कहिये कि मन मान भी जाता तो कौनसा मेरा काम हो जाता। डॉक्टर को मैंने दूर से ही देख लिया। शक्ल ऐसे लग रही थी, जैसे उसके तीन दिन कब्ज चल रही हो। गुस्से में भी था। डॉक्टर से पंगा लेना मुनासिब नहीं समझा। कंपाउंडर से ही कहा - भाई पर्ची रख ले। डॉक्टर फ्री हो तो साइन करवा लेना। कंपाउंडर ने कहा- मैं किस-किस की पर्ची रखूंगा। एक बजे के बाद आ जाना डॉक्टर साब फ्री हो जाएंगे। मैंने उसे पे्रस के नाम से धमकाना चाहा- पर पास बैठी नर्स को हंसता देखकर मैं फिर शांत हो गया। उस नर्स को शायद मेरे चेहरे पर केस्टो मुखर्जी नजर आता होगा। चलो छोड़ो। मैं कमरे से बाहर निकला और फिर घर आ गया, एक बजे वापस हॉçस्पटल जाने के लिए। एक भी बज गया। मैं फिर हॉçस्पटल के बाहर। वहीं साइकिल स्टैंड पर। लम्बी जुल्फों वाला वही लड़का दूर से ही इशारा कर रहा था। मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही वह समझ गया और जोर से बोला- परेस है? मैंने बस सिर हिला दिया। उससे ’यादा कुछ हिलाने की हिम्मत नहीं थी। सुबह चाल में जो उतावली दिख रही थी, ना जाने अब कहां खो गई, पर हिम्मत बरकरार थी। आज ठान कर भी तो आया था-चालीसवां चक्कर है, अभी नहीं, तो कभी नहीं। सत्रह नम्बर कमरे में वीराना छाया हुआ था। मुझे लगा मेरी कसम आज जरूर पूरी हो जाएगी। पुराने वाला कम्पाउंडर भी नहीं था, हंसने वाली नर्स भी नहीं थी। दूसरा ही कम्पाउंडर बैठा था। मैंने कहा- भाई डॉक्टर साब? `चाय पीने गए हैं´- वो बोला। कब आएंगे? `चाय पीकर´- वो फिर बोला। मैं वहीं खड़ा हो गया। पांच-सात मिनट बाद भी नहीं आए, तो मैंने पास खड़े एक और मरीज से पूछा कि डॉक्टर साब कब गए थे। उसने बताया- करीब पच्चीस मिनट पहले। मैंने दस मिनट और इंतजार किया और फिर वही सवाल उस कंपाउंडर पर दाग दिया- भाई डॉक्टर साब कब आएंगे? `चाय पीकर´- वो बोला। कब तक पीयेंगे? `जब तक खतम नहीं होगी´- कंपाउंडर ने कहा। मैंने सोचा सरकारी चाय है, आधा-एक घंटा तो लगना ही चाहिए। नहीं तो चाय की तौहीन। और मैंने कौनसी कभी चाय पी थी। मुझे क्या पता चाय पीने में कितना टाइम लगता है। हो सकता है चाय भी, मदिरा की तरह एक-एक घूंट दस-दस मिनट में गटकी जाती हो। साथ वाला मरीज बोला- भैया पिछले सोमवार को तो डॉक्टर साब ने साढे़ तीन बजे तक चाय पी थी। `भाई बता रहा है या डरा रहा है´- पास बैठा दूसरा मरीज बोला। मरीजों की पीड़ा देखकर मेरे मन में प्रेस का कीड़ा लगभग जाग ही चुका था। मैंने कंपाउंडर को कहा- भाई डॉक्टर को मैसेज कर दो कि बाहर पे्रस आई है। `रोज पचासों पे्रस आती है।´- उसने तो सभी मरीजों के सामने मेरी मट्टी पलीत ही कर दी। अच्छा चाय कहां पी रहे हैं?- मैंने अदब से पूछा। उसने बोलना तो छोड़ो हाथ उठाना भी मुनासिब न समझा और बस आंख की भौहों से ही इशारा कर दिया। मैं उसके इशारे की दिशा वाले कमरे में घुस गया। डॉक्टर तो नहीं, हां वो रोज हंसने वाली नर्स जरूर दिख गई। मैंने कहा- मैडम डॉक्टर साब चाय कहां पी रहे हैं। `आपने पे्रस छोड़ दी क्या?´- नर्स ने उत्सुकता से पूछा। नहीं तो- मैंने भी उत्सुकता दिखाई। `मैंने सोचा- चाय का पूछ रहे हो। थड़ी लगा ली लगती। कप उठाने आए हो´- वो फिर हंस दी। `हाए, तू क्या मेरी जान ही निकालकर छोड़ेगी? ऐसे हंसती है, तो दिल पर बिजलियां सी गिरती हैं।´- जाने क्या सोचकर मैं उसे कहते-कहते रुक गया। शायद मन में मुझे अपनी बीवी का ख्याल आ गया। लेकिन एक बार तो यह खयाल मन से निकाल दूं, ऐसा मन कर रहा था। अरे मैं फिर भूल गया। मैं तो पूछने आया था- डॉक्टर साब चाय किधर पी रहे हैं? `क्यों- क्या करना है? पे्रस का काम थोड़े ही है।´- नर्स फिर हंस दी। मैडम मैं बहुत सीरियस हूं। मुझे चक्कर काटते छह महीने हो गए। आज-आज में ही चार चक्कर लगा चुका हूं (मैंने दो चक्कर बढ़ा दिये।) मेरा दिल जानता है मैं कैसे एक घंटे से डॉक्टर की चाय खत्म होने का इंतजार कर रहा हूं। अब सब्र का बांध टूट गया है।- मैंने चेहरा थोड़ा मासूम बनाते हुए कहा। मेरी मासूमियत का उस पर कोई असर ही नहीं दिख रहा था- वो पहले की तरह ही मंद-मंद मुस्कुरा रही थी-`अंदर बैठे हैं।´ एक बंद दरवाजे की तरफ इशारा करके बोली। मैंने दरवाजा खटकाकर पूछा- सर मैं पे्रस से हूं-अंदर आ सकता हूं। `बोलिये´- डॉक्टर की शक्ल से ही कमीनापन टप-टप टपक रहा था। इतनी-इतनी देर चाय पीता है, उसी का असर है- मन में तो सोचा मैंने। पर उसे ऐसे दिखाया जैसे मैं उसका परम भक्त हूं- सर मैं कई दिनों से चक्कर काट रहा हूं- एक बिल पर साइन करवाने हैं। मैंने बिल हाथ में ले रखे थे। डॉक्टर ने घड़ी देखी। ढाई बज रहे थे। उसकी शक्ल ही बता रही थी- वो साइन नहीं करेगा। `बेटा- साइन तो दो बजे तक ही होते हैं।´- वो पूरी तरह से आराम के मूड में था। मैंने उसकी चाय का कप देखा- पूरा भरा हुआ था। अभी तक तो उसने दो-चार घूंट ही लगाए लगते हैं। डेढ़ घंटे में चार घूंट। कप खत्म होने में शाम के चार जरूर बज जाएंगे। `सर आप ही चाय पी रहे थे। मैं तो एक बजे ही खड़ा हूं।´- मैंने आखिरी प्रयास किया, पर शायद डॉक्टर ही पे्रस से पंगा लेना चाहता था। मैं अपना सा मुंह लेकर कमरे से बाहर निकला। नर्स तो पहले से ही जानती थी, साइन नहीं होंगे, सो फिर हंस दी- हो गए। मैंने बिल जेब में डालते हुए कहा- हां हो गए। नर्स की हंसी जाने क्यों गायब हो गई। उसकी उम्मीदों के खिलाफ काम हो गया शायद इसलिए। ये तो मैं ही जानता था, काम नहीं हुआ। चलो कसम खाई थी, अभी नहीं तो कभी नहीं। बाहर आकर बिल फाड़ने लगा, तो सात-एक हजार रुपए की रकम का बिल फाड़ने का मन नहीं किया। सोचा-अगली बार और प्रयास करूंगा- तब नहीं, तो कभी नहीं। अगले सोमवार को डॉक्टर के बताए समयानुसार- बिलकुल एक बजे पहुंचा। पुराने वाला कंपाउंडर बैठा था- डॉक्टर साब कहां हैं? `चाय पीने।´ कब आएंगे? `चाय पीकर।´ आज फिर मैंने सोचा- पिछली बार की कसम आज पूरी कर दूं। कसमें बार-बार तोड़नी अच्छी बात नहीं है, पाप लगता है, कसम की वैल्यू भी कम हो जाती है। बिल फाड़ने को हुआ, तो फिर मन नहीं माना- रकम जो सात-एक हजार की थी। एक बार और कसम आगे बढ़ा दी- अगली बार भी नहीं, तो कभी नहीं। हो सकता है तब तक डॉक्टर की चाय खत्म हो जाए।
रोज लेट उठने की आदत है। आज बिल पर सरकारी डॉक्टर की मोहर लगवाने के लिए हॉस्पीटल जाना था, सो मोबाइल में अलार्म लगाया। हॉस्पीटल 9 बजे खुल जाता है इसलिए साढ़े आठ का ही लगाया। करते-करते पौने नौ बजे तक उठ ही गया। नहा-धोकर और गैस पर दूध चढ़ा दिया। चाय नहीं पीता हूं ना, इसलिए सुबह-शाम एक गिलास दूध ले लेता हूं। साढ़े नौ के करीब हॉस्पीटल पहुंचा। मोटरसाइकिल खड़ी की, तो एक पतला सा लंबे बालों वाला आ गया, साइकिल स्टैंड वाला था। आगे लगाओ-आगे। मैंने आगे कर दी। और आगे लगाओ और आगे। गुस्सा आ गया मुझे- दीवार में घुसा दूं क्या। पे्रस है पे्रस। संयोग से जहां मोटरसाइकिल खड़ी की, उसके आगे पे्रस की दुकान थी। पे्रस वाले को लगा उसी के बारे में कह रहा हूं। मैं चलने लगा तो स्टैंड वाले ने पर्ची फाड़ दी- पांच रुपए। अरे मैंने कहा पे्रस है पे्रस- मैं जोर से बोला तो पे्रस वाला भी मेरी तरफ देखने लगा। उसे लगा उसके मौहल्ले में दूसरा पे्रस वाला कहां से आ गया। स्टैंड वाले ने अपने बालों में हाथ घुमाया और अदब से बोला- साब परेस के सामने खड़ी की तो क्या, रखवाली तो मैं ही रखूंगा। मैंने कहा- मेरे बाप मैं पे्रस में हूं। पत्रकार हूं। खबर लेने आया हूं। कारड दिखाओ- फिर बालों में हाथ घुमाया। मैंने भी एक हाथ जेब में, दूसरा बालों में घुमाया। जाओ- उसने बिना कार्ड देखे ही कहा। शायद उसे लगा वाकई पे्रस वाला है। मैंने मन में सोचा कि अजीब आदमी है, फोकट में हाथ जेब तक उठवा दिया। हम पे्रस वाले आलसी जो होते हैं, बिना किसी मतलब के हाथ नहीं उठाते। उससे पांच रुपए बचाकर मैं ऐसे महसूस कर रहा था, जैसे हजारों के नुकसान से बच गया। हो सकता है, उधर वो भी गाली निकाल रहा हो- आ जाते हैं साले- परेस है परेस। तनखा नहीं मिलती, जो हमारे पैसे खा जाते हैं। चलो जैसा भी हो मैं तो चल पड़ा सत्रह नंबर कमरे की ओर। अरे हड्डी सही करने वाले डॉक्टर बैठते हैं, एक बार टूट गई थी, उसी के बिल के चक्कर में चालीस चक्कर लगा लिए। चालीस कैसे- छह महीने पहले हड्डी सही होते ही पहली बार आया था, शुक्रवार को। कंपाउंडर बिल और पर्ची देखकर बोला- तीन दिन बाद आएंगे डॉक्टर साब। मैंने कहा- भाई इतने बैठे हैं, किसी से ही साइन करवा दो। थोड़ी देर तो वो दूसरे से बात करता रहा, फिर मेरी तरफ ऐसे ऐसे बोला जैसे बोलकर ही अहसान कर रहा हो- ऐसे कैसे करवा दूं, जिस डॉक्टर ने इलाज किया, वो ही तो साइन करेगा, कोई और क्यों करेगा। मैंने कहा- ऐसे कैसे नहीं करेगा, पे्रस है। वो भी बेचारा तंग आ गया- पे्रस है, तो बाहर करो, यहां कोई नहीं करवाएगा। साथ बैठी एक नर्स हंसने लगी। मैं तो बिलकुल शांत, जैसे किसी ने मेरी गर्म पे्रस पर पानी çछड़क कर ठंडा कर दिया हो। अच्छा भाईसाहब सोमवार को आ जाऊं, हो जाएंगे साइन- मैंने बिलकुल प्यार से कहा। उसकी रजामंदी लेकर चल पड़ा। उसके बाद हर हफ्ते सोमवार को छोड़कर एक-आध दिन चक्कर लगता ही रहा। छह-एक चक्कर यानी करीब डेढ़ महीने बाद पता चला, वो डॉक्टर बैठता ही सोमवार को है। मैं तो भिड़ गया कंपाउंडर से- पे्रस से हूं। पास में नर्स बैठी थी, हंसने लगी। कंपाउंडर ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मुझे फोकट में बीपीएल की दवाइयां दिलवाता हो। शायद वो अभी डॉक्टर की झाड़ सुनकर आया था। उसका चेहरा देखकर मेरा गुस्सा थोड़ा शांत हुआ- यार इंसानियत नाम की एक चीज होती है। है के नहीं। रोज आता हूं, तू रोज कहता है, आज डॉक्टर नहीं है। बता नहीं सकता- वो सोमवार को ही आता है। कंपाउंडर भी भड़क गया- तूने पूछा कब। तू रोज पूछता है, डॉक्टर है, मैं कहता हूं नहीं। जितना पूछेगा, उतना जवाब ही तो मिलेगा। मैंने कहा- अच्छा भाई माफ कर दे मुझे। गलती मेरी ही है, जो तुझ जैसे बड़े ज्ञानी से पूछा, छोटे से पूछना चाहिए था। नर्स अभी भी हंस रही थी। उसकी हंसी बेचारी बड़ी कातिल थी। चलो उस दिन भी मैं अपना सा मुंह लेकर ही आ गया। उस दिन के बाद पूरे बत्तीस चक्कर और लगा दिये। कुल मिलाकर आज उनचालीसवां है। कभी डॉक्टर नहीं होता, तो कभी डॉक्टर के पास टाइम नहीं होता। कंपाउंडर मुझे पहचानने लग गया था और नर्स भी। अब तो जब नर्स की याद आती मैं सोमवार के अलावा कभी भी चक्कर लगा लेता और नर्स से ही पूछता- डॉक्टर साब नहीं है क्या।
ये क्या आप तो पुरानी कहानी ही पढ़ रहे हैं और मैं सत्रह नंबर कमरे के सामने पहुंच भी गया। बाहर लंबी लाइन लगी थी। अंदर डॉक्टर के सामने उससे भी लंबी। सिक्योरिटी गार्ड गेट पर ही खड़ा था, ताकि और कोई भी अंदर ना जा सके। मैंने कहा- भाईसाहब, ओ भाईसाहब। कोई रिएक्शन नहीं मिला। मैंने फिर कहा- भाईसाहब, ओ भाईसाहब। क्या है- वो बोला। मैंने बड़े प्यार से कहा- पे्रस है, डॉक्टर से मिलना है। बेचारा शायद नया था, बिना किसी सवाल के अंदर जाने दिया। अंदर इतनी भीड़ देखकर मेरा मन नहीं माना कि सबसे बाद में आकर भी पहले अपना काम करवा लूं। या यूं कहिये कि मन मान भी जाता तो कौनसा मेरा काम हो जाता। डॉक्टर को मैंने दूर से ही देख लिया। शक्ल ऐसे लग रही थी, जैसे उसके तीन दिन कब्ज चल रही हो। गुस्से में भी था। डॉक्टर से पंगा लेना मुनासिब नहीं समझा। कंपाउंडर से ही कहा - भाई पर्ची रख ले। डॉक्टर फ्री हो तो साइन करवा लेना। कंपाउंडर ने कहा- मैं किस-किस की पर्ची रखूंगा। एक बजे के बाद आ जाना डॉक्टर साब फ्री हो जाएंगे। मैंने उसे पे्रस के नाम से धमकाना चाहा- पर पास बैठी नर्स को हंसता देखकर मैं फिर शांत हो गया। उस नर्स को शायद मेरे चेहरे पर केस्टो मुखर्जी नजर आता होगा। चलो छोड़ो। मैं कमरे से बाहर निकला और फिर घर आ गया, एक बजे वापस हॉçस्पटल जाने के लिए। एक भी बज गया। मैं फिर हॉçस्पटल के बाहर। वहीं साइकिल स्टैंड पर। लम्बी जुल्फों वाला वही लड़का दूर से ही इशारा कर रहा था। मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही वह समझ गया और जोर से बोला- परेस है? मैंने बस सिर हिला दिया। उससे ’यादा कुछ हिलाने की हिम्मत नहीं थी। सुबह चाल में जो उतावली दिख रही थी, ना जाने अब कहां खो गई, पर हिम्मत बरकरार थी। आज ठान कर भी तो आया था-चालीसवां चक्कर है, अभी नहीं, तो कभी नहीं। सत्रह नम्बर कमरे में वीराना छाया हुआ था। मुझे लगा मेरी कसम आज जरूर पूरी हो जाएगी। पुराने वाला कम्पाउंडर भी नहीं था, हंसने वाली नर्स भी नहीं थी। दूसरा ही कम्पाउंडर बैठा था। मैंने कहा- भाई डॉक्टर साब? `चाय पीने गए हैं´- वो बोला। कब आएंगे? `चाय पीकर´- वो फिर बोला। मैं वहीं खड़ा हो गया। पांच-सात मिनट बाद भी नहीं आए, तो मैंने पास खड़े एक और मरीज से पूछा कि डॉक्टर साब कब गए थे। उसने बताया- करीब पच्चीस मिनट पहले। मैंने दस मिनट और इंतजार किया और फिर वही सवाल उस कंपाउंडर पर दाग दिया- भाई डॉक्टर साब कब आएंगे? `चाय पीकर´- वो बोला। कब तक पीयेंगे? `जब तक खतम नहीं होगी´- कंपाउंडर ने कहा। मैंने सोचा सरकारी चाय है, आधा-एक घंटा तो लगना ही चाहिए। नहीं तो चाय की तौहीन। और मैंने कौनसी कभी चाय पी थी। मुझे क्या पता चाय पीने में कितना टाइम लगता है। हो सकता है चाय भी, मदिरा की तरह एक-एक घूंट दस-दस मिनट में गटकी जाती हो। साथ वाला मरीज बोला- भैया पिछले सोमवार को तो डॉक्टर साब ने साढे़ तीन बजे तक चाय पी थी। `भाई बता रहा है या डरा रहा है´- पास बैठा दूसरा मरीज बोला। मरीजों की पीड़ा देखकर मेरे मन में प्रेस का कीड़ा लगभग जाग ही चुका था। मैंने कंपाउंडर को कहा- भाई डॉक्टर को मैसेज कर दो कि बाहर पे्रस आई है। `रोज पचासों पे्रस आती है।´- उसने तो सभी मरीजों के सामने मेरी मट्टी पलीत ही कर दी। अच्छा चाय कहां पी रहे हैं?- मैंने अदब से पूछा। उसने बोलना तो छोड़ो हाथ उठाना भी मुनासिब न समझा और बस आंख की भौहों से ही इशारा कर दिया। मैं उसके इशारे की दिशा वाले कमरे में घुस गया। डॉक्टर तो नहीं, हां वो रोज हंसने वाली नर्स जरूर दिख गई। मैंने कहा- मैडम डॉक्टर साब चाय कहां पी रहे हैं। `आपने पे्रस छोड़ दी क्या?´- नर्स ने उत्सुकता से पूछा। नहीं तो- मैंने भी उत्सुकता दिखाई। `मैंने सोचा- चाय का पूछ रहे हो। थड़ी लगा ली लगती। कप उठाने आए हो´- वो फिर हंस दी। `हाए, तू क्या मेरी जान ही निकालकर छोड़ेगी? ऐसे हंसती है, तो दिल पर बिजलियां सी गिरती हैं।´- जाने क्या सोचकर मैं उसे कहते-कहते रुक गया। शायद मन में मुझे अपनी बीवी का ख्याल आ गया। लेकिन एक बार तो यह खयाल मन से निकाल दूं, ऐसा मन कर रहा था। अरे मैं फिर भूल गया। मैं तो पूछने आया था- डॉक्टर साब चाय किधर पी रहे हैं? `क्यों- क्या करना है? पे्रस का काम थोड़े ही है।´- नर्स फिर हंस दी। मैडम मैं बहुत सीरियस हूं। मुझे चक्कर काटते छह महीने हो गए। आज-आज में ही चार चक्कर लगा चुका हूं (मैंने दो चक्कर बढ़ा दिये।) मेरा दिल जानता है मैं कैसे एक घंटे से डॉक्टर की चाय खत्म होने का इंतजार कर रहा हूं। अब सब्र का बांध टूट गया है।- मैंने चेहरा थोड़ा मासूम बनाते हुए कहा। मेरी मासूमियत का उस पर कोई असर ही नहीं दिख रहा था- वो पहले की तरह ही मंद-मंद मुस्कुरा रही थी-`अंदर बैठे हैं।´ एक बंद दरवाजे की तरफ इशारा करके बोली। मैंने दरवाजा खटकाकर पूछा- सर मैं पे्रस से हूं-अंदर आ सकता हूं। `बोलिये´- डॉक्टर की शक्ल से ही कमीनापन टप-टप टपक रहा था। इतनी-इतनी देर चाय पीता है, उसी का असर है- मन में तो सोचा मैंने। पर उसे ऐसे दिखाया जैसे मैं उसका परम भक्त हूं- सर मैं कई दिनों से चक्कर काट रहा हूं- एक बिल पर साइन करवाने हैं। मैंने बिल हाथ में ले रखे थे। डॉक्टर ने घड़ी देखी। ढाई बज रहे थे। उसकी शक्ल ही बता रही थी- वो साइन नहीं करेगा। `बेटा- साइन तो दो बजे तक ही होते हैं।´- वो पूरी तरह से आराम के मूड में था। मैंने उसकी चाय का कप देखा- पूरा भरा हुआ था। अभी तक तो उसने दो-चार घूंट ही लगाए लगते हैं। डेढ़ घंटे में चार घूंट। कप खत्म होने में शाम के चार जरूर बज जाएंगे। `सर आप ही चाय पी रहे थे। मैं तो एक बजे ही खड़ा हूं।´- मैंने आखिरी प्रयास किया, पर शायद डॉक्टर ही पे्रस से पंगा लेना चाहता था। मैं अपना सा मुंह लेकर कमरे से बाहर निकला। नर्स तो पहले से ही जानती थी, साइन नहीं होंगे, सो फिर हंस दी- हो गए। मैंने बिल जेब में डालते हुए कहा- हां हो गए। नर्स की हंसी जाने क्यों गायब हो गई। उसकी उम्मीदों के खिलाफ काम हो गया शायद इसलिए। ये तो मैं ही जानता था, काम नहीं हुआ। चलो कसम खाई थी, अभी नहीं तो कभी नहीं। बाहर आकर बिल फाड़ने लगा, तो सात-एक हजार रुपए की रकम का बिल फाड़ने का मन नहीं किया। सोचा-अगली बार और प्रयास करूंगा- तब नहीं, तो कभी नहीं। अगले सोमवार को डॉक्टर के बताए समयानुसार- बिलकुल एक बजे पहुंचा। पुराने वाला कंपाउंडर बैठा था- डॉक्टर साब कहां हैं? `चाय पीने।´ कब आएंगे? `चाय पीकर।´ आज फिर मैंने सोचा- पिछली बार की कसम आज पूरी कर दूं। कसमें बार-बार तोड़नी अच्छी बात नहीं है, पाप लगता है, कसम की वैल्यू भी कम हो जाती है। बिल फाड़ने को हुआ, तो फिर मन नहीं माना- रकम जो सात-एक हजार की थी। एक बार और कसम आगे बढ़ा दी- अगली बार भी नहीं, तो कभी नहीं। हो सकता है तब तक डॉक्टर की चाय खत्म हो जाए।