दम-ए-दुश्वार या दिमागी दिवालियापन

दैनिक जागरण के वरिष्ठ पत्रकार द्वारा भारत के गृहमंत्री को जूता मारना क्या वाकई "साहस अथवा बहादुरीं" का काम है या फिर दिमागी दिवालियापन की अंतिम निशानी। सीबीआई द्वारा 1984 के सिख दंगों में कांग्रेसी टाइटलर को क्ली चिट देने से आहत इस सिख पत्रकार ने यह कदम उठाया। लेकिन यदि वह वाकई टाइटलर को क्लीन चिट से आहत तो क्यों नहीं उसने देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह पर ही जूता फेंका। सीबीआई केन्द्र के निर्देशों पर कार्य करती है, यह किसी से छिपा नहीं है। परन्तु क्या इसके लिए सिर्फ गृह मंत्रालय दोषी हो सकता है, यह हमारा सवाल है। क्या गृह मंत्रालय पर देश के प्रधानमंत्री अथवा अन्य किसी सत्ता का अधिकार नहीं होता। क्या गृहमंत्री अन्य किसी सत्ता के प्रति जवाबदेह नहीं होता। यदि गृह मंत्रालय से टाइटलर को क्लीनचिट के लिए सीबीआई को निर्देश मिले भी हों, तो यह कौन कह सकता है कि दबाव प्रधानमंत्री कार्यालय से नहीं आया। प्रेस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित पत्रकार उस समय न सिख था, न हिन्दू न मुस्लिम, बल्कि उसे केवल और केवल एक पत्रकार के रूप में बुलाया गया अथवा अखबार द्वारा भेजा गया था। भगवान न चाहे आज गृहमंत्री को किसी कारण से हॉस्पिटल में भरती करवाना पड़े, तो क्या सरकार को वहां से सभी सिख चिकित्सकों को ड्यूटी से हटाना पड़ेगा। न जाने कब कोई चिकित्सक अपना वास्तविक पेशा, जो भगवान का दर्जा रखता है- भूलकर क्लीन चिट के विरोध में गृहमंत्री का गला दबा दे। देश का हर नागरिक किसी न किसी कारण से किसी न किसी नेता से खफा या आहत है। आज तक राम मंदिर का फैसला नहीं हो सका, तो क्या कोई हिन्दू राजनीतिज्ञों से आहत नहीं है। बाबरी मस्जिद का फैसला भी तो नहीं हुआ। गुजरात दंगों के विरोध में लालकृष्ण आडवाणी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी मुस्लिम पत्रकार ने जूता क्यों नहीं मारा।

यहां हम इस घटना का विरोध नहीं करते, यदि चिदंबरम नाम का केवल एक राजनीतिज्ञ होता। लेकिन अभी चिदंबरम के नाम के पीछे "गृहमंत्री भारत सरकार" लिखा जाता है। विश्व में आज भारत की क्या छवि रही होगी, यह सोचकर अफसोस होता है। आज गृहमंत्री पर जूता चल गया। प्रधानमंत्री यदि सिख नहीं होते- तो हो सकता था, उन पर भी चल जाता। लेकिन भारतीय उच्च सत्ता जो देश का नेतृत्व करती है, उसका अपमान होना वाकई अफसोसजनक है। यदि देश से बाहर यह घटना घटती, तो भी क्या हम इसी बहादुरी के साथ जूता मारने वाले को पुरस्कारों की घोषणा करते फिरते। चिदंबरम ने आम चुनावों को देखते हुए सिखों का गुस्सा मोल नहीं लिया। और ना ही प्रधानमंत्री ने इस बारे में कोई बयान जारी किया। लेकिन प्रशासन को चाहिए कि उस पत्रकार के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर उसे गिरफ्तार करे। वह पत्रकार सिख है, इसको कोई नहीं नकारना चाहता। किसी अन्य सिख की तरह उसे भी पीड़ा है कि दंगों के आरोपी खुले घूम रहे हैं, लेकिन क्या सिर्फ इसी से उन्हें किसी अपराध करने की छूट मिल जाएगी। यहां हमारा उद्देश्य यह बिल्कुल भी नहीं है कि किसी धर्म के बारे में टिप्पणी करें। किसी समुदाय विशेष के बारे में भी बयानबाजी करने की हमारी मंशा बिल्कुल नहीं है। हम केवल एक पत्रकार की भूमिका क्या होनी चाहिए, इसी पर चर्चा कर रहे हैं। सिख धर्म में हमारी पूर्णत: आस्था है और हम भी सिख दंगों के आरोपियों को क्लीनचिट का विरोध करते हैं। हम इस लेख में विरोध कर रहे हैं, तो केवल विरोध-प्रदर्शन के तरीके का। कल तक हम कहते थे कि पाकिस्तानियों ने अपने राष्ट्रपति को देश से भगा दिया। हमें हंसी आती थी, वहां के हाल पर। बुश पर जूता पड़ा था, तो भी हम हंसे थे और चीनी राष्ट्रपति पर जूते की खबरें चटखारे लेकर नहीं पढ़ी थी। लेकिन आज किस पर हंसे। मिट्टी पलीत तो हमारे भारत की ही है। अफसोसजनक....


पत्रकार को ढाई लाख का इनाम और टिकट की घोषणा

अमृतसर से अकाली दल ने घोषणा की है कि यदि यह पत्रकार दिल्ली से चुनाव लड़ना चाहे, तो वह उसे टिकट दे सकता है। शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने यदि पत्रकार को नौकरी से निकाला जाता है, तो उसे नौकरी व उसके परिवार की सुरक्षा, देखभाल आश्वासन दिया है। पत्रकार की इस "साहस और बहादुरी" पर एसजीपीसी व दमदमी टकसाल उसका सम्मान करेगी। तथा दिल्ली से अकालीदल ने दो लाख रुपए तथा जयपुर से एक सिख संस्था ने पचास हजार रुपए के पुरस्कार की घोषणा की है।