क्या यही काम रह गया है मीडिया का?
पिछले कई दिनों से ललित मोदी एक हव्वा था। मोदी नाम के इस शख्स से क्रिकेट के जानकारों के अलावा शायद ही किसी को कोई लेना-देना था, लेकिन प्रिंट और टेली मीडिया ने एक ऐसा वातावरण पैदा कर दिया कि आईपीएल का यह कमिश्नर उस आदमी की आंखों में भी खटकने लग गया, जिसे चार रोज पहले तक किसी मोदी या मनोहर का नाम भी न मालूम था। मीडिया ने एक बहुत ही भयानक और शानदार बारात सजा दी मोदी की। जिसमें होस्ट और घोस्ट दोनों मीडिया वाले ही थे। पहले थरूर, फिर सुनंदा, उसके बाद सुप्रिया और प्रफुल्ल और उन सबके बाद पूर्णा, सभी को घोड़ी बनाकर नचा डाला मीडिया ने। सरकार से लेकर बेकार तक सभी लोग इस बारात में लाचार से धमा-चौकड़ी मचाते दिखे। कुछ रोज पहले तक मोदी की तारीफों के पुल बांधने वाले मीडिया ने आज मोदी को विलेन की शक्ल दे दी है। दस दिन से सभी अखबारों और चैनलों के लिए लीड पकी-पकाई मिल रही थी। चार दिन और मिलेगी, उसके बाद फिर कोई नया मोदी तैयार किया जाएगा। लेकिन अगर मीडिया अपने स्टंट पर कायम रहे, तो भी बात कुछ समझ में आए। मोदी की ट्विट पर लिखी चंद लाइनों का पहाड़ बनाकर अपने को पत्रकारिता का सिरमौर बताने वाले किस कदर पाला बदल लेते हैं इसका उदाहरण मोदी के निलंबन के तुरंत बाद ही देखने को मिल गया। कल तक उसे खलनायक सिद्ध करने वाले कई चैनलों ने एसएमएस काउंटिंग करवाना शुरू कर दिया है कि मोदी को बिना नोटिस के निलंबित करना सही है या गलत। अब आम दर्शक या पाठक, जो किसी के भी चरित्र का फैसला मीडिया के बताए अनुसार कर लेता है, वह क्या जाने कि क्या सही और क्या गलत है। कुछ रोज पहले तक उसे नहीं मालूम था कि सत्त्तर साल का एनडी तिवारी किसी कॉलगर्ल के साथ क्या कर रहा था। सत्तर साल, ऐसी उम्र, जिसमें सेक्स का विचार भी समाप्त होता जाता है, उस समय एक राज्यपाल किसी कॉलगर्ल को क्यों राजभवन में बुलाएगा, लेकिन सभी ने आंख मंदकर चैनल पर विश्वास किया और तिवारी को विलेन करार दे दिया। अब जांच जब होगी, तब तक शायद तिवारी के पड़पौते और सड़पौते न जाने किन-किन के बच्चे हो चुके होंगे, पर दशकों से कमाया उसका चरित्र गर्त में जा चुका है। पहले आग लगाना और फिर पानी के कुए में मिट्टी का तेल छिड़क देना आजकल मीडिया का काम बन चुका है। क्या यही सोचकर प्रजातंत्र में मीडिया को चौथा पाया बताया गया था।
मेरे मौहल्ले में बैठा एक शख्स रोज बिहारियों को गाली देता है। कहता है इन्हीं के कारण दिल्ली बर्बाद हो गई, लेकिन वह शख्स अभी तक न हीरो है न ही विलेन, उसे शहर में कोई नहीं जानता। ऐसा ही हाल राज ठाकरे का होता, अगर मीडिया ने उसे इतना ना उछाला होता। अव्वल बनने और सबसे पहले खबर देने की होड़ में महाराष्ट्रीयन का मुद्दा मीडिया ने इतना उछाल दिया कि जिन महाराष्ट्रवासियों के दिमाग में उत्तर भारतीयों के सहानुभूति थी, धीरे-धीरे वे भी राज ठाकरे के पक्ष में आते दिखाई दिए। एक छोटे से गांव कस्बे में हुई खबर को इतना बढ़ा-चढ़ाकर दिखा दिया कि लगा पूरी मुंबई ही जल उठी है। बस इसी से पूरे महाराष्ट्र में जहर घुलता गया। इसकी पूरी जिम्मेदारी मीडिया को लेनी होगी। कभी थरूर, कभी मोदी, कभी शाहरुख, कभी ठाकरे इन सबसे भी अलग भारत में कई पचासों लाखों मुद्दे हैं, जो मुंह बाए खड़े हैं कि आओ और हमें पूरी दुनिया के सामने दिखाओ और हमारी स्थिति सुधारो। मीडिया को समझना होगा, कि उसका जन्म किस लिए हुआ है। ऐसा न हो कि न्यूज चैनल सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए ही बनकर रह जाएं।
मेरे मौहल्ले में बैठा एक शख्स रोज बिहारियों को गाली देता है। कहता है इन्हीं के कारण दिल्ली बर्बाद हो गई, लेकिन वह शख्स अभी तक न हीरो है न ही विलेन, उसे शहर में कोई नहीं जानता। ऐसा ही हाल राज ठाकरे का होता, अगर मीडिया ने उसे इतना ना उछाला होता। अव्वल बनने और सबसे पहले खबर देने की होड़ में महाराष्ट्रीयन का मुद्दा मीडिया ने इतना उछाल दिया कि जिन महाराष्ट्रवासियों के दिमाग में उत्तर भारतीयों के सहानुभूति थी, धीरे-धीरे वे भी राज ठाकरे के पक्ष में आते दिखाई दिए। एक छोटे से गांव कस्बे में हुई खबर को इतना बढ़ा-चढ़ाकर दिखा दिया कि लगा पूरी मुंबई ही जल उठी है। बस इसी से पूरे महाराष्ट्र में जहर घुलता गया। इसकी पूरी जिम्मेदारी मीडिया को लेनी होगी। कभी थरूर, कभी मोदी, कभी शाहरुख, कभी ठाकरे इन सबसे भी अलग भारत में कई पचासों लाखों मुद्दे हैं, जो मुंह बाए खड़े हैं कि आओ और हमें पूरी दुनिया के सामने दिखाओ और हमारी स्थिति सुधारो। मीडिया को समझना होगा, कि उसका जन्म किस लिए हुआ है। ऐसा न हो कि न्यूज चैनल सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए ही बनकर रह जाएं।