पीळियो और लिछमी
वो पल बहुत खूबसूरत रहा होगा, जब लिछमी की आंखों में खोकर पीळिये ने प्यार का इजहार किया था। उसकी उंगलियां लिछमी की कोमल हथेली में थी। हवा का पास से गुजरना भी तब सा
फ सुन रहा था। जाने क्यों वो तपता सूरज इतना ठंडा हो गया था। उसकी आग कहां खो गई, कोई नहीं जानता था। पीळिया चाहता था कि ऐसे ही एक-दूसरे का हाथ थामे सदियां गुजर जाएं। पर ऐसा भला कहीं होता है। वक्त गुजरता है, तो पैमाइशें हजार होती है। वो कहीं से कुछ उठाता है, कहीं से कुछ। और कहीं पर कुछ रख देता है, कहीं पर कुछ। बस वक्त के पास यही एक तरीका है बदलाव का। पीळिया ने लिछमी की पलकों पर अपने होंठ रख दिए थे। लिछमी सिमट कर दूर खड़ी हो गई, पर अपने हाथों को उससे जुदा न कर सकी।
‘ओए के करण लागर्यो हो?’ शायद बाऊजी ने उसकी हरकत देख ली थी।
पीळिया की जुबान कैसे खुलती। जिनका नमक खा रहा था, उन्हीं के साथ दगा। वो कभी सोच भी नहीं सकता था, पर प्यार करना कोई दगा तो नहीं होता।
‘बापू आंख मां माच्छर पड़ग्यो, तो पीळियो फूंक मारै’र काड दियो...’ लिछमी उससे कहीं ज्यादा हिम्मत वाली थी। जब पीळिया चुपचाप अपनी सजा का इंतजार कर रहा था, तो लिछमी ने उसका हाथ थाम लिया। जैसे कह रही थी कि तूने कोई अपराध नहीं किया। प्यार किया है, तो डरता क्यूं है।
‘इतनी तावड़ी मां छात पर के करण आई ही तू। जा नीचे तेरी मां उड़ीकै है’ बाऊजी के कहने पर लिछमी नीचे चली गई।
‘ओ पीळिया, इन्नै आ...’ बाऊजी ने आवाज दी। वह बाऊजी से जितना डरता था, शायद ही किसी और से, भगवान से भी नहीं। आखिर उसके भगवान वही तो थे। एक आठ साल के अनाथ बेसहारा को अपने घर पालना, क्या भगवान मानने की कम वजह हो सकती थी। बाऊजी की एक बेटी थी। वो सुंदर थी या कुरूप, ऐसा कभी वह सोच ही न पाया। उसके लिए तो लिछमी सिर्फ उसके मालिक की बेटी थी। पर ना चाहते हुए भी जाने कैसे वह प्यार कर बैठा। और आज उसे लगा कि सारा भेद खुल चुका है।
‘ओए सुणै कोनी, इन्नै आ...’ बाऊजी ने फिर आवाज दी। पीळिया उनके पास जाकर सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
‘हां बाऊजी’ आवाज लडख़ड़ा रही थी।
‘के बात है, तबीयत तो ठीक है तेरी’
‘हां ठीक है बाऊजी...’
‘फेर क्यूं मात्थे पर पसीना आर्या है? जा नीचे अम्मा धोरै, तावळी कर।’ बाऊजी जाते-जाते रुक गए। ‘और सुण... भरी दोपहरी छात पर ना आया कर, तावड़ी लागगी, तो मुसीबत होज्यागी।’ कहकर बाऊजी नीचे चले गए। पीळिया थोड़ी देर वहीं बैठा रह गया। क्या बाऊजी को धोखा देना सही था। मान लिया उसकी नजरों में यह धोखा न हो, लेकिन फिर भी क्या बाऊजी कभी उसे माफ कर देंगे। उन्हीं के टुकड़ों पर पलकर उन्हीं की इज्जत से खेल जाए। नहीं, नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता। उसने लिछमी से दूर रहना उचित समझा। अब लिछमी बुलाती रह जाती, पर वह न जाता था। बहुत दिन बीत गए थे। एक रात उसे नींद न आई। वो छत पर बैठा चांद को देख रहा था। तभी लिछमी भागती हुई आई और उसका हाथ पकड़ लिया।
‘मेरो हाथ के छोडण खातिर ही पकड्यो हो पीळिया।’ उसकी आंखों में आंसू थे।
‘इतनी घणी रात होगी, तू छात पर के करण आई है। या बात मन्नै सही कोनी लागी लिछमी।’
‘कुणसी बात। के मैं तेरै सूं प्यार करुं हूं या बात’ लिछमी के आंसु की एक बूंद पीळिया के हाथ पर गिरी। ‘के तू मन्नै प्यार कोनी करै है...’ लिछमी ने पूछा। पर उसकी बात का कोई जवाब पीळिया के पास नहीं था।
‘बाऊजी मुझ अनाथ कै सिर पर हाथ रख्यो, यो उणको कम अहसान कोनी है मेरै माथै।’
‘तू भी तो कम सेवा कोनी करी ईं घर की।’ लिछमी को समझाना नामुमकिन था। ‘तू एक बात समझले कि मैं परणीजी तो तेरै ही सागै, नहीं तो म्हारी अर्थी ही जावैली घर सूं।’
‘ईयां क्यूं बोलै है बावळी’ जिस प्यार को वो भूल जाना चाहता था। लिछमी की बातों ने उसे फिर जगा दिया। उसने लिछमी को सीने से लगा लिया। लिछमी भी किसी बच्चे की तरह उससे चिपककर बैठ गई। कितना वक्त गुजर गया, किसी को मालूम न चला। नीचे लिछमी को बिस्तर पर न देखकर बाऊजी उसे ढूंढते हुए छत पर आ गए थे। पर उन्हें क्या फरक पडऩा था। दोनों एक-दूसरे की खुश्बुओं में डूबे थे।
‘ओए बदजात, जिस थाळी में खावै है, उसी में छेद करै है।’ बाऊजी की आवाज से पूरा घर जाग गया था। अम्मा और बड़े भैया भी भागकर छत पर आ गए। पीळिया सर झुकाए और सकुचाए खड़ा था, पर लिछमी ने उसका हाथ पकड़ रखा था। यही स्पर्श पीळिया को हौसला दे रहा था। पर उसके शब्द कहीं खो से गए थे।
‘बापू, मैं पीळिया सूं प्यार करुं हूं’ लिछमी ने रोते हुए कहा।
‘चुपकर, नहीं तो सर काट कै रख दूंगा’ बड़े भैया ने उसके गाल पर एक झापड़ मारा। अम्मा लिछमी का हाथ पकड़कर अलग ले गई।
‘बाऊजी, लिछमी को कोई दोस कोनी। सब मेरी गलती है... मैं भूल स्वीकारूं हूं, थे जो सजा देओला, मन्नै मंजूर होवैळी।’ पीळिया घुटनों के बल बाऊजी के सामने बैठ गया।
इतनी ही देर में उस पर लाठियों की बरसात शुरू हो गई। बड़े भैया का गुस्सा वो जानता था। अगर कुछ भी बोलता, तो उसके साथ-साथ लिछमी को भी मार पड़ती, सो वह कुछ न बोला। अचानक एक लाठी आकर उसके सर पर पड़ी। उसे बस इतना याद है कि उसके बाद कोई उसके शरीर पर आकर गिर गया। स्पर्श जाना पहचाना था। हां हां लिछमी का ही शरीर आकर गिर गया था उस पर।
‘भाईजी, इन्नै माफ करद्यो... मन्नै सजा दे द्यो... यो मर जावैलो।’ इतना कहते-कहते वह भी चुप हो गई। उसके सिर पर भी एक जोरदार लाठी का वार पड़ा।
पीळिया को थोड़ी-थोड़ी चेतना आ रही थी। शरीर के नीचे धुकधुकी सी हो रही थी और कोई उसके शरीर को धक्का दे रहा था। उसने धीरे से आंख खोली। देखा तो लिछमी खून से सनी उसे अपने हाथों से परे धकेल रही थी। लेकिन अगले ही पल एक जोरदार झटका लगा और पीळिया फिर बेहोश हो गया।
जब होश आया तो एक बिस्तर पर पड़ा था। पुलिस के आदमियों ने चारों तरफ से घेर रखा था। और सामने.... सामने दरवाजे पर बाऊजी और अम्मा सिर झुकाए खड़े थे। उसने उठने की कोशिश की, पर हिल न सका।
‘तुम्हें और चौधरी साब की लड़की को कोई घायल कर पटरियों पर छोड़ गया था। तुम किस्मत वाले हो कि बच गए। पर लड़की नहीं बची है। क्या तुम बता सकते हो, वो लोग कौन थे।’ हाथों में कागज-पट्टी लिए उस आदमी ने पूछा। वर्दी से थानेदार लग रहा था।
‘लिछमी कोनी रही। इस्सी किस्मत को के करूंला, जिणमैं उणको साथ ना होवै।’
‘देखो, तुम्हें उन लोगों का नाम बताना होगा, जिन्होंने तुम्हारे साथ ऐसा किया। उस लड़की की जान ले ली और तुम्हारे पैर... तुम्हारे पैर भी नहीं बचे।’
‘के...?’ पीळिया ने पैरों की उंगलियां हिलाने की कोशिश की। वो नहीं हिली। उसने हाथ लगाकर देखा, वाकई दोनों पैर कट चुके थे। ‘ना, मैं कोनी जाणूं साब, यो कुण कर्यो, पर जो भी कर्यो है, भगवान उसनै जरूर सजा देवैळो।’ थानेदार और पुलिस वाले उसकी बात सुनकर कुछ कागजों पर अंगूठा लगवाकर चले गए। पीळिया छत की ओर देखता कहीं खो गया।
‘मन्नै माफ कर दे पीळिया...’ बाऊजी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े थे। अम्मा भी खड़ी थी। पर पीळिया का ध्यान कहीं और था। उसे याद आ रहा था कि उसके शरीर को लिछमी धकेल रही थी। वह खुद को बचा सकती थी, पर उसने पीळिया को चुना। उसका जीवन लिछमी का कर्जदार था। पीळिया के आंसू बहने लगे। उसके पैर कट जाने का गम कुछ न था, लिछमी के त्याग के सामने।
‘लिछमी...’ उसे सामने लिछमी दिख रही थी। गला सूख गया था और मन उसे कोस रहा था। जैसे कह रहा हो, लिछमी ने उसका मरते दम तक साथ दिया, पर वह उसका हाथ छोड़कर कैसे जी सकेगा।
‘मन्नै माफ कर दे लिछमी...’ और इन आखिरी शब्दों के साथ वो हमेशा के लिए सो गया।

‘ओए के करण लागर्यो हो?’ शायद बाऊजी ने उसकी हरकत देख ली थी।
पीळिया की जुबान कैसे खुलती। जिनका नमक खा रहा था, उन्हीं के साथ दगा। वो कभी सोच भी नहीं सकता था, पर प्यार करना कोई दगा तो नहीं होता।
‘बापू आंख मां माच्छर पड़ग्यो, तो पीळियो फूंक मारै’र काड दियो...’ लिछमी उससे कहीं ज्यादा हिम्मत वाली थी। जब पीळिया चुपचाप अपनी सजा का इंतजार कर रहा था, तो लिछमी ने उसका हाथ थाम लिया। जैसे कह रही थी कि तूने कोई अपराध नहीं किया। प्यार किया है, तो डरता क्यूं है।
‘इतनी तावड़ी मां छात पर के करण आई ही तू। जा नीचे तेरी मां उड़ीकै है’ बाऊजी के कहने पर लिछमी नीचे चली गई।
‘ओ पीळिया, इन्नै आ...’ बाऊजी ने आवाज दी। वह बाऊजी से जितना डरता था, शायद ही किसी और से, भगवान से भी नहीं। आखिर उसके भगवान वही तो थे। एक आठ साल के अनाथ बेसहारा को अपने घर पालना, क्या भगवान मानने की कम वजह हो सकती थी। बाऊजी की एक बेटी थी। वो सुंदर थी या कुरूप, ऐसा कभी वह सोच ही न पाया। उसके लिए तो लिछमी सिर्फ उसके मालिक की बेटी थी। पर ना चाहते हुए भी जाने कैसे वह प्यार कर बैठा। और आज उसे लगा कि सारा भेद खुल चुका है।
‘ओए सुणै कोनी, इन्नै आ...’ बाऊजी ने फिर आवाज दी। पीळिया उनके पास जाकर सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
‘हां बाऊजी’ आवाज लडख़ड़ा रही थी।
‘के बात है, तबीयत तो ठीक है तेरी’
‘हां ठीक है बाऊजी...’
‘फेर क्यूं मात्थे पर पसीना आर्या है? जा नीचे अम्मा धोरै, तावळी कर।’ बाऊजी जाते-जाते रुक गए। ‘और सुण... भरी दोपहरी छात पर ना आया कर, तावड़ी लागगी, तो मुसीबत होज्यागी।’ कहकर बाऊजी नीचे चले गए। पीळिया थोड़ी देर वहीं बैठा रह गया। क्या बाऊजी को धोखा देना सही था। मान लिया उसकी नजरों में यह धोखा न हो, लेकिन फिर भी क्या बाऊजी कभी उसे माफ कर देंगे। उन्हीं के टुकड़ों पर पलकर उन्हीं की इज्जत से खेल जाए। नहीं, नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता। उसने लिछमी से दूर रहना उचित समझा। अब लिछमी बुलाती रह जाती, पर वह न जाता था। बहुत दिन बीत गए थे। एक रात उसे नींद न आई। वो छत पर बैठा चांद को देख रहा था। तभी लिछमी भागती हुई आई और उसका हाथ पकड़ लिया।
‘मेरो हाथ के छोडण खातिर ही पकड्यो हो पीळिया।’ उसकी आंखों में आंसू थे।
‘इतनी घणी रात होगी, तू छात पर के करण आई है। या बात मन्नै सही कोनी लागी लिछमी।’
‘कुणसी बात। के मैं तेरै सूं प्यार करुं हूं या बात’ लिछमी के आंसु की एक बूंद पीळिया के हाथ पर गिरी। ‘के तू मन्नै प्यार कोनी करै है...’ लिछमी ने पूछा। पर उसकी बात का कोई जवाब पीळिया के पास नहीं था।
‘बाऊजी मुझ अनाथ कै सिर पर हाथ रख्यो, यो उणको कम अहसान कोनी है मेरै माथै।’
‘तू भी तो कम सेवा कोनी करी ईं घर की।’ लिछमी को समझाना नामुमकिन था। ‘तू एक बात समझले कि मैं परणीजी तो तेरै ही सागै, नहीं तो म्हारी अर्थी ही जावैली घर सूं।’
‘ईयां क्यूं बोलै है बावळी’ जिस प्यार को वो भूल जाना चाहता था। लिछमी की बातों ने उसे फिर जगा दिया। उसने लिछमी को सीने से लगा लिया। लिछमी भी किसी बच्चे की तरह उससे चिपककर बैठ गई। कितना वक्त गुजर गया, किसी को मालूम न चला। नीचे लिछमी को बिस्तर पर न देखकर बाऊजी उसे ढूंढते हुए छत पर आ गए थे। पर उन्हें क्या फरक पडऩा था। दोनों एक-दूसरे की खुश्बुओं में डूबे थे।
‘ओए बदजात, जिस थाळी में खावै है, उसी में छेद करै है।’ बाऊजी की आवाज से पूरा घर जाग गया था। अम्मा और बड़े भैया भी भागकर छत पर आ गए। पीळिया सर झुकाए और सकुचाए खड़ा था, पर लिछमी ने उसका हाथ पकड़ रखा था। यही स्पर्श पीळिया को हौसला दे रहा था। पर उसके शब्द कहीं खो से गए थे।
‘बापू, मैं पीळिया सूं प्यार करुं हूं’ लिछमी ने रोते हुए कहा।
‘चुपकर, नहीं तो सर काट कै रख दूंगा’ बड़े भैया ने उसके गाल पर एक झापड़ मारा। अम्मा लिछमी का हाथ पकड़कर अलग ले गई।
‘बाऊजी, लिछमी को कोई दोस कोनी। सब मेरी गलती है... मैं भूल स्वीकारूं हूं, थे जो सजा देओला, मन्नै मंजूर होवैळी।’ पीळिया घुटनों के बल बाऊजी के सामने बैठ गया।
इतनी ही देर में उस पर लाठियों की बरसात शुरू हो गई। बड़े भैया का गुस्सा वो जानता था। अगर कुछ भी बोलता, तो उसके साथ-साथ लिछमी को भी मार पड़ती, सो वह कुछ न बोला। अचानक एक लाठी आकर उसके सर पर पड़ी। उसे बस इतना याद है कि उसके बाद कोई उसके शरीर पर आकर गिर गया। स्पर्श जाना पहचाना था। हां हां लिछमी का ही शरीर आकर गिर गया था उस पर।
‘भाईजी, इन्नै माफ करद्यो... मन्नै सजा दे द्यो... यो मर जावैलो।’ इतना कहते-कहते वह भी चुप हो गई। उसके सिर पर भी एक जोरदार लाठी का वार पड़ा।
पीळिया को थोड़ी-थोड़ी चेतना आ रही थी। शरीर के नीचे धुकधुकी सी हो रही थी और कोई उसके शरीर को धक्का दे रहा था। उसने धीरे से आंख खोली। देखा तो लिछमी खून से सनी उसे अपने हाथों से परे धकेल रही थी। लेकिन अगले ही पल एक जोरदार झटका लगा और पीळिया फिर बेहोश हो गया।
जब होश आया तो एक बिस्तर पर पड़ा था। पुलिस के आदमियों ने चारों तरफ से घेर रखा था। और सामने.... सामने दरवाजे पर बाऊजी और अम्मा सिर झुकाए खड़े थे। उसने उठने की कोशिश की, पर हिल न सका।
‘तुम्हें और चौधरी साब की लड़की को कोई घायल कर पटरियों पर छोड़ गया था। तुम किस्मत वाले हो कि बच गए। पर लड़की नहीं बची है। क्या तुम बता सकते हो, वो लोग कौन थे।’ हाथों में कागज-पट्टी लिए उस आदमी ने पूछा। वर्दी से थानेदार लग रहा था।
‘लिछमी कोनी रही। इस्सी किस्मत को के करूंला, जिणमैं उणको साथ ना होवै।’
‘देखो, तुम्हें उन लोगों का नाम बताना होगा, जिन्होंने तुम्हारे साथ ऐसा किया। उस लड़की की जान ले ली और तुम्हारे पैर... तुम्हारे पैर भी नहीं बचे।’
‘के...?’ पीळिया ने पैरों की उंगलियां हिलाने की कोशिश की। वो नहीं हिली। उसने हाथ लगाकर देखा, वाकई दोनों पैर कट चुके थे। ‘ना, मैं कोनी जाणूं साब, यो कुण कर्यो, पर जो भी कर्यो है, भगवान उसनै जरूर सजा देवैळो।’ थानेदार और पुलिस वाले उसकी बात सुनकर कुछ कागजों पर अंगूठा लगवाकर चले गए। पीळिया छत की ओर देखता कहीं खो गया।
‘मन्नै माफ कर दे पीळिया...’ बाऊजी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े थे। अम्मा भी खड़ी थी। पर पीळिया का ध्यान कहीं और था। उसे याद आ रहा था कि उसके शरीर को लिछमी धकेल रही थी। वह खुद को बचा सकती थी, पर उसने पीळिया को चुना। उसका जीवन लिछमी का कर्जदार था। पीळिया के आंसू बहने लगे। उसके पैर कट जाने का गम कुछ न था, लिछमी के त्याग के सामने।
‘लिछमी...’ उसे सामने लिछमी दिख रही थी। गला सूख गया था और मन उसे कोस रहा था। जैसे कह रहा हो, लिछमी ने उसका मरते दम तक साथ दिया, पर वह उसका हाथ छोड़कर कैसे जी सकेगा।
‘मन्नै माफ कर दे लिछमी...’ और इन आखिरी शब्दों के साथ वो हमेशा के लिए सो गया।