बस यूं ही...

कई दिनों से कुछ नहीं लिखा, तो बस यूं ही...

उस घर लगी थी आग, और मैं यहां डरा था।
तेरा दिया था जख्म, वो जख्म भी हरा था।
छिप गया मैं जाकर, पीपल की आड़ में,
अब भी वहीं खड़ा हूं, तब भी वहीं खड़ा था।।

मद्धम है आंच उसकी, ठंडी है बिजलियां।
शायद संभल भी जाए, वो पगली पगलियां।*
तेरा साथ ही धुआं था, मेरे जिस चकोर का,
वो दिल वहीं पड़ा है, उस दिन जहां पड़ा था।।

खेलती खिलाती, क्या खेल कर रही थी
ठंडी हवा न जाने, किसका मेल कर रही थी
वो इक गुलाब था जो, आखिर कहां गया
तुझको नहीं मिला है, मुझको नहीं मिला था।।

चादर सुकून की है, बिस्तर बड़ा सुहाना
दिल मेरा चाहता था, कंधों पे तेरे आना
बस सांस ही थमी थी, पर राह तक रहा था
अब भी नहीं मरा हूं, तब भी नहीं मरा था...
अब भी नहीं मरा हूं, तब भी नहीं मरा था...