कुछ हसीन लम्हे...

बहुत कुछ ऐसे वाकये हम लोगों के साथ बहुत बार घटित हो जाते हैं, जो भुलाए नहीं भूलते। कुछ हंसाते हैं, कुछ रुलाते हैं। ज्यादातर हंसाते ही हैं। हम तीन भाई हैं। बचपन में तीनों ही अव्वल दर्जे के शरारती थे। शायद अब भी हों।


हमारे घर में होली-दिवाली पर जब भी कोई खाने-पीने की चीज बनती थी, तो पापा इतनी बना देते थे कि यदि मानव की तरह से खाया जाए, तो बिल्कुल डेढ़ महीने चल जाए। लेकिन हम भाईयों को खाने की बहुत जल्दी होती थी। इतनी कि दिवाली पर सुबह बनाई गई मिठाई, जो रात को लक्ष्मी जी के भोग लगाकर ही खाई जाती है, और मैंने कई बार उसमें से दो-एक पीस निकालकर दोपहर में ही भोग लगाया हुआ है। हो सकता है मेरे भाईयों ने भी लगाया हो। रात को पूजन के समय जब सभी लोग लक्ष्मी जी की आरती बोल रहे होते थे, तो मेरे मन में सिर्फ एक ही लाइन चलती थी- `जय लक्ष्मी माता, माफ करना। गलती हो गई। जय लक्ष्मी माता, माफ करना। गलती हो गई।´


जैसा कि मैंने बताया हम भाईयों को खाने की बहुत जल्दी होती थी। हर बार साल में एक बार, सीजन मालूम नहीं- शायद सर्दियों में- पापा अपने लिए मेथी के और हम भाईयों और मम्मी के लिए गोंद के लड्डू बनाते थे। पापा हम तीनों भाईयों के बीस या पच्चीस हरेक के लड्डू बांटकर मम्मी को दे देते थे। मम्मी उन्हें लोहे के पीपे में- जो लुहार लोग शायद बीसेक रुपए में दे जाते थे- रख देती थी। रोज सुबह-सुबह एक-एक लड्डू सबको मिलता, पर मैं और मेरा छोटा भाई (बड़ा शामिल नहीं था) दोपहर में मम्मी के इधर-उधर होने पर एक-एक लड्डू और खा लेते। छोटा तो संतुष्ट हो जाता पर मैं एक लड्डू और इधर-उधर कर लेता और शाम को आराम से छत पर जाकर खाया करता। दो-चार दिन में ही पीपे में लड्डूओं की संख्या कम होने पर मम्मी ने उसमें ताला लगा दिया। अब मम्मी हमारी भोली, उन्हें नहीं मालूम कि पीपे के आगे तो ताला लगा दिया, लेकिन पीछे तो ढक्कन और पीपे को जोड़ने के लिए केवल दो कील ही होती हैं। उसे भी निकालने में जोर आता, लेकिन पीपा ही बहुत पुराना था और उसकी कीलें तो लगभग बाहर ही आई हुई थीं, इसलिए हमारा काम और आसान था। मैं छोटे को साथ लेकर पीपे की कीलों को माचिस की तिल्ली से खिसकाता और ढक्कन खुल जाता। आगे ताला और पीछे से माल धीरे-धीरे कम होने लगा। इधर हम खुश और उधर मम्मी। इस पीपे ने दो-चार साल हमारा साथ दिया। इस पीपे ने ही घर में हमारी विश्वसनीयता कायम की कि बच्चे अब सुधर गए हैं। फालतू का चटोरापना नहीं करते। दो-चार साल में हम भी कुछ बड़े हो गए। अब पीपे का सीजन चला गया।


दो-चार दिन से फिर लड्डू बने हुए थे, गोंद के नहीं थे। हम बच्चों को कुछ ना कुछ मीठा मिलता रहे, शायद इसलिए आटे के भी हो सकते हैं। इस बार मम्मी ने बनाए थे। पर एक बड़े से भगोने में रखकर अंदर वाले कमरे में रखे हुए थे। उसी में पूजाघर था। हम लोग उसी से लगता हुआ एक कमरा था, उसमें सोते-बैठते थे। इस कमरे को स्टोर के रूप में उपयोग में लेते थे। एक दिन बरामदे में ही खेलते-खेलते अचानक मैं और मेरा छोटा भाई कमरे मे पहुंचे तो मम्मी वहां नहीं थी। स्टोर में देखा, तो वहां भी नहीं। बाहर तो थी ही नहीं। मैंने सोचा- बन गई मौज। छोटे को लेकर स्टोर में भगोने के पास पहंुचा। और उस पर ढकी हुई चादर ज्यों ही उठाई। पास ही पड़ी चारपाई से, जिस पर कुछेक रजाईयां रखी हुई थी- जोर से आवाज आई और कोई जना रजाई उठाकर बैठ गया। बल्ब तो जगाया ही नहीं था। अंधेरे में चोरी कर रहे थे। भूतों के बारे में सुना बहुत था, पर ऐसा लगा जैसे आज आ ही गया। लेकिन दसेक सेकेण्ड बाद डर तब खत्म हुआ जब मम्मी पास आ गई और जोर-जोर से हंसने लगी। छोटे के सामने मेरी ही बेइज्जती हुई थी। इसलिए शायद मैं नहीं हंसा था।



एक बार हम तीनों भाई मम्मी के साथ नानी के अलसीसर गांव गए हुए थे। वहां दोनों मामाजी के बच्चे और हम सभी लोग छुपम-छुपाई खेल रहे थे। मामाजी का एक लड़का नीटू दीवार से मुंह लगाकर खड़ा हो गया और हम सभी दूर साबुन फैक्ट्री में चले गए, जो बंद हो चुकी थी। उसका छोटा सा बाथरूम था। उसी में लगभग सात-आठ जने छुप गए और अंदर से बंद कर लिया। मैं अकेला बाहर था, तो मुझे शरारत सूझी। मैंने बाहर से कुंडी लगा दी और फैक्ट्री से बाहर आकर दूसरी तरफ छुप गया। दसेक मिनट बाद शोर-शराबे को देखते हुए वापस फैक्ट्री में गया, तो सभी लोग नीटू को डांट रहे थे। मामाजी की लड़की पायल दम घुटने से लगभग बेहोश ही हो गई थी। बाकी सबका भी दम घुट रहा था क्योंकि बाथरूम में कोई खिड़की नहीं थी। मैं भी वहीं पहुंचा और नीटू का ही नाम लगा दिया कि `इसी ने बंद किया है। मैं तो दूसरी तरफ छिपा था।´ मुझे अभी भी याद है कि मैंने कैसे अपना अपराध उस पर ढोल दिया था कि नीटू कभी ऐसा नहीं करना, कुछ हो जाता तो। घर पहुंचने पर नीटू को मामाजी की डांट भी पड़ी थी।


मम्मी के पास कुछ पैसे बचते तो उन्हें रसोई में कभी दाल के डिब्बे में, कभी चने के डिब्बे में रख देती। मुझे अड्डा मालूम चल गया था। उस वक्त पापा ही हमारी जरूरत का सारा सामान ला देते थे, जेबखर्ची बिल्कुल भी नहीं मिलती थी। दस-पन्द्रह दिन में शायद एक-आध बार। तो मैं जब मम्मी नहीं होती थी, तो रसोई में जाकर पहले दाल का डिब्बा चैक करता, उसमें मिल जाते तो ठीक, नहीं तो दूसरा डिब्बा चैक करता, उसमें तो मिल ही जाते। कभी अड्डा चेंज भी हो जाता, तो भी मैं मालूम कर लेता। हालांकि बड़ी चोरी कभी नहीं की। ज्यादा से ज्यादा बीस पैसे चोरी किए थे। उस समय पतंगों का सीजन था। मुझे कभी शौक नहीं रहा। लेकिन बड़ा भाई पतंग का शौकीन और लूटता भी था कई पतंगे। तो मैं भी लगभग रोज ही कभी पन्द्रह तो कभी बीस पैसे चोरी कर ले जाता और मार्केट से दस-दस पैसे की दो पतंगें खरीद लेता। उन्हें जमीन पर गिराकर थोड़ी सी मैली कर देता। सड़क से ही कोई सींख उठाकर उसके छेद कर देता, जिसमें धागा डालकर कणियां पोई जाती हैं। फिर घर आकर बड़े भाई को दे देता कि भाईजी आज स्कूल जा रहा था, रास्ते में पतंग लूटी। इसी तरह लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन एक पतंग लूटकर ले आता था।


बचपन में एक बार तबीयत बहुत खराब हुई। डॉक्टर ने पन्द्रह दिन लगातार सुबह-शाम को एक-एक इंजेक्शन लिखा। पहले दिन मम्मी इंजेक्शन लगवाने गई। दर्द तो बहुत हुआ, पर इंजेक्शन बड़े प्यार से लगवा लिया मैंने। घर आकर मम्मी ने मेरी तारीफ की कि ये तो बिल्कुल भी नहीं घबराता, बड़े प्यार से इंजेक्शन लगवाया। जो भी औरत घर आती, उसे बता ही देती थी मेरी मम्मी। अब मैं एक-आध बार तो लगवा लूं, पर रोज-रोज उसी जगह इंजेक्शन लगे, तो दर्द तो होगा ही और होता भी। लेकिन मम्मी की यह तारीफ मेरी गले की फांस बन गई। मुझे हर बार चुपचाप इंजेक्शन लगवाना पड़ता। क्योंकि डॉक्टर को भी मालूम था मैं बड़े प्यार से इंजेक्शन लगवाता हूं।


एक बार छोटे भाई को टांटिया खा गया। वो जोर-जोर से रो-रोकर मम्मी के पैर पड़ने लग गया कि मम्मी मुझे बचा लो। बहुत दर्द हो रहा है। मुझे बचा लो मम्मी। इधर मुझे कभी टांटिया तो नहीं खाया था, लेकिन फिर भी मालूम था कि उसके खाने से बस एक बार थोड़ा दर्द होता है, फिर सही हो जाएगा। इसलिए वो उधर जितना जोर से रो रहा था, उतनी ही जोर से मैं इधर हंस रहा था। आज वो वाकया याद करता हूं तो सचमुच हंसी आती है।