
आज ही मम्मी की भेजी हुई मिठाई मिली। मम्मी-पापा दोनों ही आए थे, परसों मामा जी के पोते के नामकरण संस्कार में, झुंझुंनूं (गंगानगर से साढ़े तीन सौ तथा जयपुर से ढाई सौ किलोमीटर)। जाते वक्त मामाजी ने उनके साथ मिठाई का डिब्बा पैक कर दिया। पर मां का दिल कैसे मानता, उन्होंने पूरा डिब्बा मामाजी की लड़की निशा (जो जयपुर में ही पढ़ती है) के हाथों मेरे पास जयपुर भिजवा दिया। उन्हें भी तो अपने पोते (मेरा बेटा, जो अभी चार महिने का ही है और अपनी मम्मी के साथ गंगानगर ही है) की याद आ रही थी, नहीं तो शायद खुद ही जयपुर आ जातीं। गंगानगर पहुंचकर मम्मी और पापा दोनों का ही चार-पांच बार फोन तो आ ही गया था कि `निशा को कहदे- गुलाबजामुन निकालकर फि्रज में रख दे, खराब हो जाएंगे। कितनी दूर घर है उनका, तू खुद जाकर मिठाई ले आ।´ अब उन्हें कौन समझाता कि विद्याधरनगर और राजापार्क की दूरी कम से कम तेरह किलोमीटर है और कह दिया कि कल निशा खुद आ रही है, दे जाएगी। आज निशा आई। पहले मैं महारानी कॉलेज पहुंचा, फिर फोन आया- `मैं लालकोठी हूं´। मेरे लालकोठी पहुंचते ही निशा की बस आ गई और बिना बातचीत की औपचारिकता के केवल मिठाई का डिब्बा लेकर मैंने उसे बस में चढ़ा दिया। घर आया, तो बिना हाथ धोए ही सीधा डिब्बा खोला (दो डिब्बे थे)। एक डिब्बे में से एक-एक कर सात गुलाबजामुन खा गया (आप भले ही हंस सकते हैं, पर सुबह से कुछ नहीं खाया था, और मेरी फेवरेट डिश देखकर रुक नहीं पाया)। दूसरे डिब्बे में थे मोतीचूर के पूरे ग्यारह लड्डू। यह लड्डू और गुलाबजामुन क्या जयपुर में नहीं मिलते? मैं जयपुर में भी खरीद सकता था। मिलते क्यों नहीं, पर दुकानदार उन टोटल ढाई सौ रुपए के लड्डू और गुलाबजामुन में करोड़ों की भावनाएं कहां से मिलाता, जो मेरी मम्मी और पापा ने मिठाई के साथ भेजी थी। मुझ तक मिठाई पहुंच गई, सुनकर उन्हें जो खुशी मिली, वो उस दुकान से भला कहां मिलती।
क्यों गुलाबजामुन की बेज्जती कर रहे हो...
यहां यह बात अवश्य बताना चाहूंगा कि जब मैं इस ब्लॉग के लिए गुलाबजामुन की फोटो, जो आप ऊपर देख रहे हैं-सर्च की, तो एक ऑफिस के ही सीनियर ने आकर कहा- `वाह रसगुल्ले!´ अब उन्हें बताने का समय तो था नहीं कि रसगुल्ले और गुलाबजामुन में फर्क क्या है, सो नहीं बताया।