कहानी पूरी फिल्मी है...

आज अपनी पुरानी डायरी पढ़ रहा था, यह गजल सामने आ गई। इस गजल के पीछे एक लंबी-चौड़ी कहानी है। पहले आप गजल पढ़ लें, कहानी बाद में सुनाऊंगा-


कदमों को लगे ना धूल, राह धुला के रखूंगा।

पैरों के नीचे तेरे, पलकें बिछाके रखूंगा।


कभी आना ए हसीना, मेरे दिल में देखने,

मंदिर को तेरे मैं, सजा के रखूंगा।


तू मैफरोश होके भी है, कितनी मुकद्दस,

मैं मैख्वार प्याला उठाके रखूंगा।


अनजाने में सही, आई नसीब में,

तेरी सौगात दिल से लगाके रखूंगा।


बख्श दे इक रात की तौफीर वफाया,

मैं सब पुरानी बातें, भुलाके रखूंगा।


तुझसे मिलन में कुछ ना पड़े खलल,

अपने गमों को दूर मैं सुलाके रखूंगा।


मिरी महफिल में जो आई, तो तेरी आब देखना,

चेहरा बहारों को तेरा, दिखाके रखूंगा।


है यही इल्लत मेरी, खानाखराब की,

मैं ख्वाब तेरे जेहन में बसाके रखूंगा।


मालूम है सूरत मेरी, है तुझको नापसंद,

मैं भी तो ए `दर्द´, मुंह छुपाके रखूंगा।


हां तो अब कहानी सुनो- मैं श्रीगंगानगर में ही एक लोकल अखबार में कुछ समय तक रहा। उस समय मेरा एक मित्र हुआ करता था। मान लीजिए- उसका नाम था महेश और वो भी उसी अखबार में काम करता था। उसी अखबार में एक लड़की भी काम करती थी- पूजा। तो महेश और पूजा में आपस में करीब डेढ़-एक साल से जो कुछ चल रहा था, उससे पूरा ऑफिस और उन दोनों के परिवार वाले, यहां तक कि मौहल्लेवाले तक परिचित थे। जैसा कि बता चुका हूं मैं नोएडा से कुछ समय के लिए उसी अखबार में काम करने के लिए गया। वहीं मेरा एक और मित्र राजू भी काम करता था। मैं और राजू आमतौर पर महेश के घर जाते रहते थे। तो महेश की मम्मी जब देखो पूजा का ही रोना लेकर बैठ जाती थी। मैंने और राजू ने इन दोनों को अलग करने की स्कीम बनाई। राजू ने कहा किसी और लड़के को बीच में लाना पड़ेगा, जो पूजा के साथ चक्कर चलाए और महेश उससे अलग हो जाए। राजू को तो पूजा भैया बोलती थी। हालांकि मेरी शक्ल कुछ खास तो नहीं थी, फिर भी मैंने ही उसे फंसाने का प्रयास शुरू किया। तो पूजा का एक मुखबिर था, सोनू। राजू और मैंने डिसाइड किया कि आज के बाद मैं ऑफिस में हमेशा गुमसुम रहूंगा और एक काल्पनिक `लक्ष्मी´ का जिक्र बार-बार करूंगा। तो सोनू के सामने इसका जिक्र बार-बार होने से कम से कम पूजा को तो इस बात का पता चल गया था कि मैं किसी लक्ष्मी के चक्कर में हूं।

कहानी बिल्कुल फिल्मी थी- हमारी प्लानिंग थी कि पूजा तक हर बार यह बात पहुंचे कि मैं लक्ष्मी को बहुत चाहता हूं और अंत में पूजा को बता दूंगा कि लक्ष्मी कोई और नहीं तुम ही हो। कई छोटे-मोटे प्रयोग भी किए, मसलन- पूजा एक की-रिंग (जिसमें घुंघरू लगे थे और आवाज करते थे) अपने पास रखती थी, वैसी ही मैंने उसे लाने को कही, तो उसने अपनी ही की-रिंग निकालकर मुझे दे दी। मैं हमेशा उसे जोर-जोर से हाथ में घुमाते हुए आता, जिससे पूरे ऑफिस को पता चल गया कि पूजा की की-रिंग अब मेरे पास है। पूजा के ही कारण ऑफिस के ही एक मित्र से लड़ाई कर ली (प्लानिंग के तहत)। ताकि पूजा के मन में मेरे लिए भाव जागे और महेश को इसकी खबर लगे। अब अंतिम दिन मैंने पूजा को साफ कहा कि आज मैं तुम्हें एक गजल लाकर दूंगा, उसे अखबार में छाप देना, लक्ष्मी इसी अखबार को पढ़ती है, उस तक मेरी बात पहुंच जाएगी। और पूरी रात उदू की डिक्शनरी पास लेकर बैठ गया, एक-एक शेर शायद आधेक घंटे में बन रहा था। करीब आधी रात हो चली थी। हालांकि पूजा के लिए मेरे मन में कुछ भी नहीं था, पर शायद यह गजल ही मुझे अच्छी बनती लग रही थी, इसलिए मैं लिखता रहा।

अगले दिन जाकर पूजा को यह गजल दे दी- इसमें कुछ बातों का जिक्र अवश्य कर दिया था- मेरे ख्याल से वह समझ गई थी कि कोई लक्ष्मी-वक्ष्मी नहीं, चक्कर कुछ और ही है। मसलन मैंने लिखा- `अनजाने में सही, आई नसीब में, तेरी सौगात दिल से लगाके रखूंगा।´- यह वही की-रिंग के बारे में था। `बख्श दे इक रात की तौफीर वफाया, मैं सब पुरानी बातें, भुलाके रखूंगा।´- यह लाइन इसलिए थी कि मैंने पूजा को पहले बहुत अपशब्द बोले थे, लेकिन अब महेश की मां के खातिर मैं कूद पड़ा था, सो उससे माफी ही मांग रहा हूं। `मालूम है सूरत मेरी, है तुझको नापसंद, मैं भी तो ए `दर्द´, मुंह छुपाके रखूंगा।´- यह लाइनें इसलिए कि महेश ने मेरे बारे में पूजा को बहुत गलत-गलत बातें बता रखी थी। यह गजल केवल `दर्द´ नाम से उस अखबार में प्रकाशित भी हुई (पहले मैं `दर्द´ नाम से लिखा करता था, इसके पीछे भी एक बहुत बड़ा `दर्द´ çछपा है)। हालांकि उसके बाद क्या-क्या घटनाएं घटित हुईं, उसका इस विषय से कोई लेना-देना नहीं, इसलिए उन्हें बताना भी उचित नहीं। परन्तु इतना जरूर हुआ कि महेश की शादी किसी और लड़की से हो गई। और पूजा अभी भी महेश का नाम लेकर जिंदगी गुजार रही है। महेश ने शादी से दो-चार महीने पहले से ही पूजा से बातचीत बंद कर दी थी, पर अब फिर जोर-शोर से पुराना प्रोग्राम जारी है। मुखबिर सोनू अभी भी मुझसे मिलता-जुलता रहता है। पूजा जो पहले राजू को ही भैया बोलती थी, आजकल मुझे भी भैया बोलती है। जैसा कि आपको पता ही है मैं `भैया´ का विरोध करूं, ऐसा कोई कारण भी नहीं था, मैं तो केवल कुर्बानी देने चला था। राजू जो मेरा बेस्ट फ्रैंड था, आजकल उससे बातचीत लगभग बंद सी ही है।


हां तो कहानी में एक कॉमेडी सीन-

मुझे दारूबाजी बिल्कुल पसंद नहीं, परन्तु दारूबाजों के बीच बैठने में कोई आपत्ति नहीं। तो महेश एक दिन मूड में था, सो हम दोनों काली के ढाबे (गंगानगर का फेमस दारूबाजों का अड्डा) पर गए। ढाबे से बाहर मैंने महेश को समझाया कि यार पूजा को छोड़ दे। बिलकुल खराब लड़की है। तेरे लायक नहीं है। महेश ने बिल्कुल विश्वास दिलाया कि - यार उसकी बात मत कर, मैंने उसे कब का भुला दिया। उसकी शक्ल ही नहीं देखना चाहता। मैंने कहा- बिलकुल अच्छी बात है। तू सुधर गया इसी की मुझे खुशी है। ढाबे के अंदर गए। अद्धा खुल गया। एक पैग महेश के पेट में चला भी गया और थोड़ा सा मुर्गा भी। (मैं दोनों ही चीजें नहीं छूता, पहले ही बता चुका हूं)। मैंने फिर बात शुरू की- महेश ये पूजा तो बिल्कुल ही घटिया लड़की है। अब महेश का सब्र का बांध टूट गया (वो हमेशा हकलाकर बोलता है)- `यार ऐसा मत बोल। पू ऊ ऊ .... पू... पूजा मेरा सच्... सच्च.... सच्चा प्यार है।´

संशोधन : वह मित्र, जिसकी यह कहानी है- उसने मेरे एक अन्य मित्र को फोन कर पूछा है कि `मान लिया संदीप ने यह कहानी सही भी लिखी है, तो क्या अपने बारे में भी सही लिखा है। उसका कहना है कि वो शराब और कबाब दोनों के ही हाथ नहीं लगाता जबकि उसने मेरे साथ कई पीया और खाया है।´ मेरा इस कहानी में मात्र इतना संशोधन है कि जहां मैंने लिखा कि मैं दोनों ही चीजें (दारू और मुर्गा ) नहीं छूता, वहां केवल मुर्गा नहीं छूना माना जाए। डि्रंक मैं कभी-कभार कर लिया करता था, परन्तु उस समय भी मांस तो कभी नहीं छुआ। लेकिन इस समय वर्तमान में तो दोनों ही वस्तुएं मुझे नापसंद है।