सीबीआई, मर्डर मिस्ट्री और नुपुर

सीबीआई भले ही आरुषि मर्डर केस के पूरे मामले में अपनी पीठ थपथपाती रहे और कोर्ट के फैसले के बाद मीडिया चीख-चीख कर कहता रहे कि आरुषि को इंसाफ मिल गया। लेकिन पूरे मामले में कई सवाल अभी भी कटघरे में हैं। भले ही मंगल और बुध के सभी अखबारों के फ्रंट पर राजेश और नुपुर तलवार के फोटो के साथ ‘मम्मी-पापा ने मारा आरुषि को’ रंग दिया गया हो, लेकिन आमजन का मन कुछ और कहता है। कोर्ट का फैसला सुबूतों पर निर्भर करता है। जज लाख कवायद कर ले, लेकिन जजमेंट साक्ष्यों के आधार पर करना उसकी मजबूरी है। सीबीआई के वकील द्वारा की गई फांसी की मांग भी जायज है। क्योंकि अगर अभियोजन पक्ष का वकील ही कहने लगेगा कि साक्ष्यों को दरकिनार कर आरोपियों पर मानवीय आधार पर थाेड़ी रियायत बरती जाए, तो अगले ही पल उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा। उसका तो काम ही है कड़ी से कड़ी सजा मांगना।
यदि उस भयानक रात को जो कुछ राजेश तलवार ने देखा, वह पहले उसकी पत्नी नुपुर देख लेती, तो इतना सब नहीं होता। शायद उसकी बेटी भी बची रहती और उसका पति भी गुनहगार न बनता। क्योंकि मां कितनी भी कोशिश कर ले, अपनी बेटी को मौत के घाट नहीं उतार सकती थी। वह पति और बेटी दोनों को बचाती।

एक सवाल जो चीख-चीखकर मेरे मन में उमड़ रहा है, वह यह कि कहीं आरुषि की मां तो बेवजह नहीं फंसा दी गई। सबसे पहले जब जांच नोएडा पुलिस ने की, तब यदि उसने अपना काम ढंग से किया होता तो शायद गुत्‍थी बहुत जल्द और आसानी से सुलझ चुकी होती। इस बार सीबीआई की दलील पर विश्वास करना हालांकि हमारी मजबूरी तो है, पर उसे कैसे भूल जाएं- जब पहली बार जांच में इसी सीबीआई ने तलवार दंपति को क्लीन चिट दे दी थी। और इनके नौकरों को मामले में फंसा दिया था।
इसके बाद तो सिर्फ तथ्यात्मक साक्ष्यों के आधार पर ही सीबीआई की दूसरी टीम ने कहानी बुनी। ऐसा हुआ, तो ऐसा हुआ होगा और ऐसा हुआ तो ऐसा हुआ होगा। यह कहानी ऐसी है, जो कानून और आम आदमी के दिमाग में ऐसे फिट हो गई, जिसे कोई बदल नहीं सकता। पर सचाई यही है, यह कौन कह सकता है।
यदि सीबीआई की ही दलीलों काे मान लें, तो राजेश तलवार ने आपत्तिजनक स्थिति में पाए जाने पर गलती से आरुषि का और उसके बाद हेमराज का कत्ल कर दिया। लेकिन उसकी पत्नी नुपुर को तो पूरे मामले में रियायत मिलनी ही चाहिए थी। अगर यही कत्ल राजेश ने घर से बाहर किया होता, तो केवल वही गिरफ्तार होता, उसकी पत्नी साफ बच जाती। यहां नुपुर का दोष इतना ही है, कि उसने अपने पति का साथ दिया। हालांकि अपराधी को बचाने के लिए सुबूतों को मिटाना कोई छोटा अपराध नहीं है, लेकिन वह एक पत्नी होने के नाते इतना ही कर सकती थी। उस समय नुपुर किन मानसिक झंझावतों में फंसी होगी, कोई नहीं जानता। एक तरफ तो उसकी बेटी की लाश पड़ी थी, तो दूसरी तरफ उसके पति के हाथ दो मर्डर हो चुके थे। कोई नहीं जानता, उस समय उस पर क्या बीत रही होगी। नुपुर ने वही किया, जो उस समय उसके मन ने कहा। लेकिन अपराध तो किया ही, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।
मेरा मानना है कि पूरे मामले की फिर से नए सिरे से जांच होनी चाहिए। मर्डर न तो पूर्व नियोजित था और न ही किसी रंजिश के चलते। वह एक तात्कालिक उन्माद था। यदि उस भयानक रात को जो कुछ राजेश तलवार ने देखा, वह पहले उसकी पत्नी नुपुर देख लेती, तो इतना सब नहीं होता। शायद उसकी बेटी भी बची रहती और उसका पति भी गुनहगार न बनता। क्योंकि मां कितनी भी कोशिश कर ले, अपनी बेटी को मौत के घाट नहीं उतार सकती थी। वह पति और बेटी दोनों को बचाती। फिर भले ही हेमराज को कानून के रास्ते सजा दिलवाती वह अलग मामला है।
बहरहाल पूरे फैसले पर मेरे मन में भारी ऊहापोह की स्थिति है, जो कायम रहेगी। मेरी दुआ यह रहेगी कि हाईकोर्ट तलवार दंपति की याचिका पर थोड़ा मानवीय रुख भी अपनाए और अगर हो सके तो नुपुर को कुछ रियायत भी दे।