बाबा नंबर-2
ये ऐसे लोग हैं, जिनकी कभी बारात सजी नहीं और न ही भविष्य में कभी सजने की उम्मीद है। ये ऐसे लोग हैं, जिनके लिए दूल्हा बनने की बात सोचना भी पाप है। ये अब्दुल्लाज दूसरों की बारात में नाचकर ही अपने ब्याह का सा मजा ले आते हैं। आजकल बड़ी राजी-खुशी में हैं। इनके बाबा का ब्याह पड़ने वाला है। जनपथ के बाबा को राजपथ का दूल्हा बनाने की कवायद में जयपुर में बैठकर गंभ्ाीर चिंतन-मंथन किया जा रहा है। देशभर से बाराती बुलाए गए हैं। सबने एक ही ताल पर ताता-थय्या किया। और आखिर में घने चिंतन के बीच आम आदमी को दरबान बनाकर बाहर खड़ा कर दिया और बाबा के नाम की मद्धम शहनाई बजा दी। सब जगह पटाखे फूटने लगे- बाबा नंबर-2 हो गए हैं। देश भर में जश्न मना। सब लोगाें ने गले लग-लगकर बधाईयां दीं। मानों उनकी बरसों की ख्वाहिश आज खुदा ने पूरी कर दी।
एक ने कहा- बाबा नंबर-2 तो हो गए हैं। अब जल्दी उनकी गोद कुर्सी से भर जाए।
लगे हाथ दूसरे बाराती ने हाथ उठाकर ‘आमीन’ शब्द का उच्चारण किया।
मैं बारात में नहीं था। घर पर था। पर मेरी आंखों के सामने सारा धूम-धड़ाका था। टीवी पर लाइव देखा। अचानक थोड़ी देर बाद डोर बेल बजी- 2014 में बाबा का ब्याह है। जरूर आना।
मैंने सोचा- बारात तो कब की सज गई। ब्याह डेढ़ साल बाद क्यों होगा।
‘यहां ब्याह बाद में होता है, बारात पहले सजती है। और कभी-कभी तो गोद पहले भर जाती है, बारात उसके बाद और उसके भी बाद ब्याह होता है। नासमझ कहीं का। ’ कहकर वह मुड़ गया। मुझे यूं घूरते हुए- जैसे कह रहा हो किस कम्बखत से पाला पड़ गया।
थोड़ा मूड फ्रेश करने के लिए मैं घ्ार से निकल गया। ढेर सारी सीढ़ियां उतरकर बाहर आया तो देखा- लगभग सुनसान रहने वाली सड़क पर तीन-चार से अधिक पटाखों की और दो-चार रंग-गुलाल की दुकानें खुल गईं थी। सब पर भ्ाारी भीड़। फुलझड़ी, रॉकेट, मुर्गाछाप लड़ी लोग अधिक खरीद रहे थे। जो थोड़े अतिआकांक्षावादी थे- वे महंगे वाला फ्लावर रॉकेट ले रहे थे। उनका मानना था, गली में मुर्गाछाप फटा, किसने देखा। सो अगर बनाना ही है, तो आकाश में फ्लावर बनाओ। कम से कम चर्चा तो होगा। रंग की दुकान पर लाल और हरा गुलाल तड़ा-तड़ बिक रहे थे। संतरी गुलाल एक कोने में पड़ा अपने सांप्रदायिक होने का रोना रो रहा था।
मैंने एक उत्साही बाराती से पूछा- भाई आज कौनसी शुभ्ा घड़ी है। जो होली-दिवाली के ओब्जेक्ट्स एक साथ दिखाई पड़ रहे हैं।
वो अभ्ाी रॉकेट की बत्ती में माचीस लगा ही रहा था। बीच में रुक गया। बोला- तुम्हें नहीं मालूम। बाबा दो नंबर के हो गए हैं।
‘तो ये भी दो नंबरी हो गए।’ मैंने आश्चर्य जताया।
बाराती थोड़ा आक्रोश में आया- ‘दो नंबरी होना और दाे नंबर का होना, दोनों अलग-अलग बात हैं।’
‘कैसे?’
‘बाबा अब ऊपर से दूसरे नंबर हो गए हैं। इनके ऊपर सिर्फ परमात्मा है। जिसके सिर पर ये हाथ रख देंगे, वो परमात्मा को प्यारा हो जाएगा।’
वो मुझे इग्नोर करते हुए अपने दूसरे साथ्ाी के साथ ‘ख्वाजा मेरे ख्वाजा, दिल में समा जा...’ गाते हुए एक फुस्स रॉकेट की बत्ती जलाने का असंभ्ाव प्रयास करने लगा।
मैंने पास ही एक चीथड़े में लिपटे आदमी को देखा। उसके दोनों हाथाें में रसगुल्ले थे। उसके देखकर मुझे अपने मित्र का सुनाया एक शेर याद आया, जो उसने कल दोपहर ही मुझे सुनाया था। मैं गुनगुनाने लगा- ‘पहले उन्होंने रस कहा, फिर उन्होंने गुल कहा और फिर कहा ले..... और इस तरह उन्होंने रसगुल्ले के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।’
चीथड़े में लिपटा आदमी गुनगुनाहट देखकर मेरे पास आकर रुक गया। ‘तुम लोग क्यों खामखाह बाबा को बदनाम करते हो। आज पच्चीस साल बाद पहली बार दोनों हाथों में रसगुल्ले हैं। सिर्फ बाबा के कारण...’
‘पच्चीस साल बाद मतलब...’
‘पच्चीस साल पहले, मेरा भी ब्याह हुआ था। मेरी भी बारात सजी थी। तब रसगुल्ले खाए थे। वो दिन था और आज का दिन है...’ वह रसगुल्ले की तरफ खा जाने वाली नजरों से देखते हुए बोल ही रहा था कि बहुत देर से जिसे जलाने की कोशिश हो रही थ्ाी, वह फुस्स रॉकेट उस आदमी के घुटने तलों निकलकर आसमान की ओर बढ़ने लगा।
घ्ाबराहट में चीथड़े पहने आदमी के हाथ से एक रसगुल्ला छूटकर नीचे गिर गया।
बैकग्राउंड में कहीं गाना बज रहा था- यिक रसगुल्ला कहीं फट गया रे...
पीछे से एक आदमी चिल्ला रहा था- कुछ नया नहीं है। बाबा पहले से ही दो नंबरी है। अब क्या खास हो गया।
इस पर एक बाराती इधर से चिल्लाया- सरासर झूठ है। बाबा अभी ही ऑथोराईज्ड दो नंबरी हुए हैं।
दोनों आपस में गुत्थम-गुत्था थे। मैं चिंतन में डूबा हुआ था। यदि बाबा पहले से दो नंबरी थे तो अब दो नंबरी बनाने का फायदा क्या? और यदि नहीं थे और अब ऑथोराईज्ड हुए हैं, तो अनऑथोराईज्ड दो नबंरी, क्या दो नंबरी नहीं होते? यह एक गंभीर चिंतन का विषय था। और चिंतन कहां होगा... यह उससे भ्ाी बड़े मंथन का विषय था। इसी बीच मेरा मोबाइल पर घंटी बजी। रिंगटोन बजने लगी- यू माई पंपकिन-पंपकिन, हैलो हनी-बनी....।
एक ने कहा- बाबा नंबर-2 तो हो गए हैं। अब जल्दी उनकी गोद कुर्सी से भर जाए।
लगे हाथ दूसरे बाराती ने हाथ उठाकर ‘आमीन’ शब्द का उच्चारण किया।
मैं बारात में नहीं था। घर पर था। पर मेरी आंखों के सामने सारा धूम-धड़ाका था। टीवी पर लाइव देखा। अचानक थोड़ी देर बाद डोर बेल बजी- 2014 में बाबा का ब्याह है। जरूर आना।
मैंने सोचा- बारात तो कब की सज गई। ब्याह डेढ़ साल बाद क्यों होगा।
‘यहां ब्याह बाद में होता है, बारात पहले सजती है। और कभी-कभी तो गोद पहले भर जाती है, बारात उसके बाद और उसके भी बाद ब्याह होता है। नासमझ कहीं का। ’ कहकर वह मुड़ गया। मुझे यूं घूरते हुए- जैसे कह रहा हो किस कम्बखत से पाला पड़ गया।
थोड़ा मूड फ्रेश करने के लिए मैं घ्ार से निकल गया। ढेर सारी सीढ़ियां उतरकर बाहर आया तो देखा- लगभग सुनसान रहने वाली सड़क पर तीन-चार से अधिक पटाखों की और दो-चार रंग-गुलाल की दुकानें खुल गईं थी। सब पर भ्ाारी भीड़। फुलझड़ी, रॉकेट, मुर्गाछाप लड़ी लोग अधिक खरीद रहे थे। जो थोड़े अतिआकांक्षावादी थे- वे महंगे वाला फ्लावर रॉकेट ले रहे थे। उनका मानना था, गली में मुर्गाछाप फटा, किसने देखा। सो अगर बनाना ही है, तो आकाश में फ्लावर बनाओ। कम से कम चर्चा तो होगा। रंग की दुकान पर लाल और हरा गुलाल तड़ा-तड़ बिक रहे थे। संतरी गुलाल एक कोने में पड़ा अपने सांप्रदायिक होने का रोना रो रहा था।
मैंने एक उत्साही बाराती से पूछा- भाई आज कौनसी शुभ्ा घड़ी है। जो होली-दिवाली के ओब्जेक्ट्स एक साथ दिखाई पड़ रहे हैं।
वो अभ्ाी रॉकेट की बत्ती में माचीस लगा ही रहा था। बीच में रुक गया। बोला- तुम्हें नहीं मालूम। बाबा दो नंबर के हो गए हैं।
‘तो ये भी दो नंबरी हो गए।’ मैंने आश्चर्य जताया।
बाराती थोड़ा आक्रोश में आया- ‘दो नंबरी होना और दाे नंबर का होना, दोनों अलग-अलग बात हैं।’
‘कैसे?’
‘बाबा अब ऊपर से दूसरे नंबर हो गए हैं। इनके ऊपर सिर्फ परमात्मा है। जिसके सिर पर ये हाथ रख देंगे, वो परमात्मा को प्यारा हो जाएगा।’
वो मुझे इग्नोर करते हुए अपने दूसरे साथ्ाी के साथ ‘ख्वाजा मेरे ख्वाजा, दिल में समा जा...’ गाते हुए एक फुस्स रॉकेट की बत्ती जलाने का असंभ्ाव प्रयास करने लगा।
मैंने पास ही एक चीथड़े में लिपटे आदमी को देखा। उसके दोनों हाथाें में रसगुल्ले थे। उसके देखकर मुझे अपने मित्र का सुनाया एक शेर याद आया, जो उसने कल दोपहर ही मुझे सुनाया था। मैं गुनगुनाने लगा- ‘पहले उन्होंने रस कहा, फिर उन्होंने गुल कहा और फिर कहा ले..... और इस तरह उन्होंने रसगुल्ले के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।’
चीथड़े में लिपटा आदमी गुनगुनाहट देखकर मेरे पास आकर रुक गया। ‘तुम लोग क्यों खामखाह बाबा को बदनाम करते हो। आज पच्चीस साल बाद पहली बार दोनों हाथों में रसगुल्ले हैं। सिर्फ बाबा के कारण...’
‘पच्चीस साल बाद मतलब...’
‘पच्चीस साल पहले, मेरा भी ब्याह हुआ था। मेरी भी बारात सजी थी। तब रसगुल्ले खाए थे। वो दिन था और आज का दिन है...’ वह रसगुल्ले की तरफ खा जाने वाली नजरों से देखते हुए बोल ही रहा था कि बहुत देर से जिसे जलाने की कोशिश हो रही थ्ाी, वह फुस्स रॉकेट उस आदमी के घुटने तलों निकलकर आसमान की ओर बढ़ने लगा।
घ्ाबराहट में चीथड़े पहने आदमी के हाथ से एक रसगुल्ला छूटकर नीचे गिर गया।
बैकग्राउंड में कहीं गाना बज रहा था- यिक रसगुल्ला कहीं फट गया रे...
पीछे से एक आदमी चिल्ला रहा था- कुछ नया नहीं है। बाबा पहले से ही दो नंबरी है। अब क्या खास हो गया।
इस पर एक बाराती इधर से चिल्लाया- सरासर झूठ है। बाबा अभी ही ऑथोराईज्ड दो नंबरी हुए हैं।
दोनों आपस में गुत्थम-गुत्था थे। मैं चिंतन में डूबा हुआ था। यदि बाबा पहले से दो नंबरी थे तो अब दो नंबरी बनाने का फायदा क्या? और यदि नहीं थे और अब ऑथोराईज्ड हुए हैं, तो अनऑथोराईज्ड दो नबंरी, क्या दो नंबरी नहीं होते? यह एक गंभीर चिंतन का विषय था। और चिंतन कहां होगा... यह उससे भ्ाी बड़े मंथन का विषय था। इसी बीच मेरा मोबाइल पर घंटी बजी। रिंगटोन बजने लगी- यू माई पंपकिन-पंपकिन, हैलो हनी-बनी....।