चोरी

थोड़ा और बड़ा हुआ तो मां के बनाए लड्डू चुराकर खाए। इतने लड्डू कि एक महीने चलने वाले, केवल दस दिन ही चलते। एक बार पिताजी की जेब से पांच रुपये निकाल लिए थे। पांच रुपये का पिताजी भला क्या ध्यान रखेंगे। यह सोच गलत थी। काम से लौटते ही दोनों भाईयों की पेशी हो गई। मां से थापी मंगवा ली थी। मां ने कपड़े धोने के लिए स्पेशल बनवाई थी। आज हमारे ही काम आने वाली थी। डर तो लग रहा था, पर मुंह न खोलने की कसम खाई थी। दो-तीन बार की सॉलिड डांट में ही छोटा भाई पिघल गया। और सारे रुपयों की टॉफी खाने की बात कहकर पिताजी से माफी मांग ली। रिमांड खत्म होने पर मैंने पूछा- हैं रे तूने क्यों लिये पिताजी के रुपये? उसने मासूमियत से कहा- 'भैया मैंने नहीं लिये, पर मैं नहीं मानता तो दोनों की जबरदस्त धुलाई होती।' मैंने दूसरे कमरे में ऊपर की अलमारी में अखबार के नीचे रुपये छिपा दिये थे। शाम को वापस चुपके से पिताजी की जेब में डाल दिये। अगले दिन पिताजी ने जेब में रुपये देखकर छोटे को बुला लिया। सोचा कि उनके देखने में ही भूल हुई, रुपये तो जेब में ही थे। छोटे से पूछा- झूठ क्यों बोला? कल जो एक झापड़ छोटे के लगा दिया था, उसकी एवज में उनकी आंखों से दो बूंदें भी टपकी थी। मेरे दिल को कुछ तसल्ली मिली।
पढ़ाई में मन न था। लत न थी, फिर भी एक सिगरेट एक दिन में पीता तो दो रुपये के हिसाब से साठ रुपये तो महीने के हर हाल में चाहिए थे। एक किताबों की दुकान पर हैल्पर का काम मिल गया। डेढ़ सौ रुपये महीना। मेरे लिए तो बहुत थे ही। सुंदर-सुंदर डायरियां और पेन थे यहां। एक अगर पिताजी के लिए ले चलता तो कितना अच्छा रहता। मौका को देखकर एक महंगा पेन जेब में डाल लिया। पिताजी को कहा था कि महीने से पैसे कटवाऊंगा, पूछकर लाया हूं। कितने खुश थे पिताजी। बेटे का पहला तोहफा था। 'कल आपको एक डायरी लाकर दूंगा। कब तक सड़ी सी कॉपी में हिसाब लिखोगे।' अगले दिन किताबों के बॉक्स के साथ एक डायरी छिपाकर बाहर ले आया और साइकिल के बैग में डाल ली। इस चोरी में दिली सुकून मिल रहा था। बाहर से चाय वगैरह के लिए मुकुन्दलाल पर्र्ची बनाकर देता था। उसी से चाय या ठंडा आता था। मैं ही जाता था लाने। उसकी पर्र्ची का स्टाइल और हस्ताक्षर सीख गया था मैं। आज छोटे को हा था- चल थम्सअप पिलाकर लाऊं। उसे पार्क में बैठाकर दो बोतल ले आया। दोनों ने हरी-हरी घास पर बैठकर चोरी का काला पानी पीया था। उसे मालूम होता तो न पीता। मैंने कहा- मेरा अकाउंट चलता है।
आजकल एक सेठजी के यहां काम कर रहा था। कॉपी-पेन, ठंडा को छोड़ दें तो आज कई सालों बाद एक बड़ी चोरी का मौका था। जाते समय सेठजी के कागजों से एक कागज नीचे गिर गया। सेठजी तो कार में बैठकर चले गए। बाद में मैंने कागज उठाया। बैंक का चैक था हस्ताक्षर किया हुआ। रुपये नहीं लिखे थे। मैंने चैक जेब में डाला और घर आ गया। चार दिन तक सोचता रहा कि चैक में रुपये कितने डालूं। डालूं भी या चैक ही फाड़ दूं। आखिर में तय किया कि ज्यादा न सही छह हजार तो डाल ही दूं, इतने तो खाते में होंगे ही। जानने के लिए थोड़ा इंतजार किया। सेठजी को किसी से कहते सुना कि खाते में डेढ़ लाख रुपये आ गए हैं। शाम को घर पहुंचा तो, छह, सोलह, छब्बीस, छत्तीस करते-करते छप्पन हजार भर दिये। रुपयों में छह क्यों रखना चाहता था मालूम नहीं। बैंक पहुंचा, तो धड़कनें चार गुणा तेज थीं। चैक बाबू को दे दिया। अचानक उसके पास एक फोन आया। बात करते-करते उसने पहले चैक को फिर मुझे देखा। मैं डर ही गया था कि उसने रुपये निकालकर दे दिये। मैं झटके से रुपये उठाकर घर की तरफ भागा। मां को बोला कि आज राह में रुपये पड़े मिले। घर पर जैसे दिवाली बनी। कभी एक साथ इतने रुपये न देखे थे हमने। अगले दिन काम पर गया तो कुछ शोर-शराबा न था। शायद किसी को रुपये निकालने की जानकारी न थी। पहले तो डर लग रहा था, पर अब मन हल्का हो गया। उन रुपयों से घर की दीवारें पक्की हो गर्ई थी और एक कमरा भी अलग से बन गया। मेरे हाथों में बेडिय़ां डालने के लिए। इतने दिन मैंने कभी एक जगह टिककर काम न किया। लेकिन अब सेठजी के यहां सात साल से ज्यादा हो गए थे। सेठजी बीमार थे, सो गद्दी पर आना कम कर दिया। बेटों ने उनका काम संभाल लिया। सेठजी कितने नर्म दिल थे, पर बेटे साले एक नंबर के अक्खड़। सेठजी के रहने कभी पगार में दिक्कत न आई थी। अब पन्द्रह-पन्द्रह दिन ऊपर हो जाते। इतने सालों में सेठजी के ढेरों रुपये इधर-उधर किये थे मैंने, पर अब काम सोच-समझकर करना पड़ता था। पैसों की जबरदस्त कमी हो गई।
राधारमण की उम्र भी छह साल हो गई। शादी के एक साल बाद ही हो गया था यह। अभी बीमार चल रहा था। लोग कहते थे कि माता निकली है। पर डॉक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि बिगड़ा हुआ बुखार है। अगर इसी हफ्ते टीका न लगा, तो उसके हाथ में कुछ न रहेगा। पैसे कुछ ज्यादा लगेंगे। मैं लोगों के कहे पर चला। पर राधा की हालत बिगड़ती रही। तो मुझे डॉक्टर की बात ही सही लगी। अब सिर्फ पैसों की दिक्कत थी। मैं सेठजी के बेटे के पास गया, तो उसने अपनी ही दिक्कतें गिनवा दी। मेज पर पर्स पड़ा था और मोटे-मोटे नोट भी दिख रहे थे। मैं वहीं खड़ा रहा। वे लोग किसी काम से बाहर चले गए। मैंने चुपके से एक नोट उसमें से निकालकर छिपाया और बाहर आ गया। थोड़ी दूर ही पहुंचा था कि उन्होंने आवाज दी। मैं चुपचाप उनके पास गया।
'पचीस हजार थे। अब पांच सौ कम हैं। और अंदर सिर्फ तू था...' चोरी में सफाई की जरूरत ज्यादा होती है, जो मुझ में नहीं थी। सालों को शक हो गया था। मेरे कपड़ों की तलाशी ली। कुछ न मिला, तो मेरे साथ काम करने वालों ने ही मुझे जमकर पीटा। सिर्फ सेठ की नजरों में वफादार बनने के लिए। मेरे हाथ बांधकर पेड़ पर लटका दिया। इतनी पिटाई में मुझे मालूम ही न चला कि कब मेरे कपड़े उतारकर और नंगा कर दिया। और लटकाते वक्त भी दर्द ज्यादा नहीं था। काफी देर बाद कुछ-कुछ सुनाई पड़ रहा था। कोर्ई कह रहा था- पांच सौ के लिए क्या जान ले लोगे? अब उतार दो, नहीं लेने के देने पड़ जाएंगे। मुझे होश आया तो मैं जमीन पर औंधे मुंह पड़ा था। पास ही मेरे कपड़े पड़े थे। आंख खुली तो चारों तरफ कोई न था। मैंने उठकर शरीर की मिट्टी झाड़ी, थोड़ा मुंह पौंछा औैर पैंट कमीज पहनी। जिस टहनी पर लटकाया था, उसी के किनारे पर एक छोटा सा खड्डा जैसा था। वहां हाथ मारा, तो कागज हाथ में आ गया। इतनी मार खाकर भी अगर यह न मिलते, तो क्या फायदा। घर पहुंचा तो शारदा इंतजार ही कर रही थी। राधारमण हांफ कर सांस ले रहा था। शायद वो भी मेरा ही इंतजार कर रहा था। मैंने उसे चूमा और डॉक्टर के पास लेकर भागा।
'इतने में हो जाएगा ना?' मैंने डॉक्टर के हाथ में आज की कमाई धर दी।
चार दिन बाद आज राधा कुछ हंसा है। उसका चेहरा भी खिला-सा दिखा। थोड़ा खेलने भी लगा। शारदा मां थी, उसे बेटे के साथ ही कुछ और भी याद था- 'सेठ जी ने राधा की जान बचाई है। भगवान उन्हें खूब तरक्की देगा।'
'हां उन्होंने ही जान बचार्ई है। भगवान खूब तरक्की देगा...' मैं भी खुश था। राधा की हंसी के लिए। और सबसे बड़ी चोरी के लिए। भगवान से चंद सांसें चुरा लाया और किसी को मालूम भी न चला। शायद इसलिए।