पंडों की मां-बहन

शीर्षक से ना समझें कि किन्हीं पंडे-पुजारियों को गालियों का सिलसिला शुरू हो रहा है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। एक आदमी बेचारा कैसे इनके चंगुल में फंस जाता है और बचने के चक्कर में अपना काम अधूरा ही छोड़कर भाग खड़ा होता है। इसका सदृश्य उदाहरण मैंने आज देख ही लिया। ऑफिस में ट्यूअर्स का मौसम चल रहा है। दो दिन पहले ही इलाहाबाद आया हूं। कल बनारस के लिए निकलना है। सो रात को ही संगम देखने का प्रोग्राम बनाया था। सुबह देर से उठा। बाहर धूप भी जबरदस्त थी। इसलिए सहकर्मियों को परेशान करना उचित न समझा। और अकेला ही निकल पड़ा। टैम्पो ने घाट से दो-ऐक किलोमीटर पहले उतार दिया था। धूप मेरे साथ-साथ चल रही थी। फिर भी इस दो किलोमीटर में मैं जबरदस्त बोर हो गया। आगे बढऩे पर एक जगह जोर का हल्ला हो रहा था। मैं वहीं खड़ा हो गया।

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'ठाकुर साहब, तुम यहां अपना काम करवाने नहीं हमें लड़वाने आए हो' एक पंडा चिल्ला-चिल्लाकर आगे बढ़ रहा था। दूसरा उसे रोक रहा था।

'तुम्हारा तरीका बिल्कुल भी ठीक नहीं है।' पैंट-शर्ट पहने और हाथ में लैदर बैग लिये यह आदमी शायद बाहर से अपने दादा-वादा किसी के कर्मकांड के लिए आया था। उसके साथ एक औरत और दो पुरुष भी थे। 'तुम इस तरह बात करते आने वालों से...' कहानी शायद यह थी कि यह पैंट-सूट बाबू ने घाट पर आने से पहले उस पंडे को फोन कर दिया था, लेकिन आने के बाद दूसरे पंडे से कर्मकांड करवा रहे थे। पहले वाले को मालूम चल गया। और दोनों भिड़ गए।

'हम बात नहीं करते इस तरह। आप करवा रहे हैं...' पंडा तैश में ही था।

'हमें नहीं करवा कुछ भी। हम किसी दूसरे से अपना काम करवाएंगे।' कहकर पैंट-सूट बाबू पलट गए।

'हम करवायगें ना आपका काम। देखते हैं कौन रोकता है हम देखते हैं...' पास ही खड़े दूसरे पंडे ने उसका हाथ पकड़ लिया।

'तुम कैसे करोगे, हम देखते हैं। करके दिखाओ जरा...' पहले वाला पंडा इससे आकर भिड़ गया।

पैंट-सूट बाबू इनसे बचकर भागने लगे। तो तीसरे पंडे ने पकड़ लिया।

'अरे भाई हमें छोड़ऩे का कितना पैसा लोगे?' बाबू हाथ छुड़ाकर भागने लगा।

पहला पंडा भागकर वापस आ गया 'मेरे ठाकुर जी, आपने पहले फोन हमें किया था या किसी और को? वह अपनी बही-पोथी साथ में ले आया 'आपके पंडे हम हैं, किसी और से कर्म कैसे फलेगा आपको?'

'हम तो आपैही के पास आए थे। पर आपका व्यवहार ऐसा है। शर्म आनी चाहिए...' पैंट-शर्ट बाबू ने कहा।

'ठाकुर जी, आप हमारे गुरुजी हैं।' पहले पंडे ने उसका हाथ पकड़ लिया।

'आप केवल रुपये के पंडे हैं। आप नहीं है हमारे पंडे।'

'ई जो पेट है, ई पर खतरा आवे, तो कौन नहीं बिगड़ जाएगा।' पंडा बोला 'हम ही तो राधारमण पंडे के बेटे हैं।'

'उनका नाम भी आप तमीज से लीजिए....' बाबू बोला।

'अरे गुरुजी, हमरे पिताजी हैं राधा...'

'बताय रहे हैं, उनका नाम भी सम्मान से लीजिए' बाबू ने अपना हाथ छुड़वाया 'अब हमें माफ कर दो...'

'आप जिससे कहेंगे, उससे आपका काम करवाएंगें। आओ मैं कर रहा हूं ना आपका काम...' दूसरा पंडा बोला।

इतने में ही पहला पंडा बीच में आ गया।

'मुझसे आपको नहीं करवाना, तो ये भी नहीं करेगा। किसी तीसरे से करवा लीजिए आप... लेकिन इससे भी नहीं करवाएंगें।'

'काहे नहीं करवाएंगें, कोई धौंस है क्या?' दूसरा पंडा तैश में आ गया।

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अब ये जो टोटली कहानी चली है, पढऩे में' शायद मजा न आए, पर देखने में तो मजा आ ही रहा था। और पैंट-सूट बाबू पर दया आ रही थी, कहां फंस गया बेचारा। इतना सब होने के बाद पहला-दूसरा और तीसरा तीनों पंडों ने जो एक दूसरे की मां-बहन की, वो सबने सुनी। वे भूल गए थे कि एक धार्मिक स्थान पर खड़े हैं और यहां औरतें भी आ-जा रही हैं। तीनों ने अपने-अपने समर्थक पंडों को फोन कर बुला लिया। पैंट-सूट बाबू न पहले न दूसरे और न तीसरे, किसी चौथे-पांचवे या छठवें पंडे से काम करवाकर चले गए होंगे। पंडे भी झगड़ा कर-कराकर वापस मित्रवत हो गए होंगे। पर अपनी पाखंडता का परिचय जरूर दे ही गए।