किसलिए बना दी 'पा'...
कल रात पा फिल्म देखने का मौका मिला। पूरी फिल्म देखने के बाद समझ नहीं आया कि आखिर अमिताभ जैसे महानायक ने क्या सोचकर यह फिल्म बनाने की सोची। क्या सिर्फ दुनिया को यही दिखाने के लिए कि अड़सठ साल का नायक 13 साल के बच्च्चे का किरदार कैसे निभाता है। पूरी फिल्म की अगर बात करें, तो अभिषेक बच्चन के डायलॉग और उनका अभिनय ही देखने लायक है। विद्या बालन ने अच्छा रोल किया, पर उसकी जगह महिमा चौधरी भी होती, तो वैसा ही प्ले करती। एक सांसद क्यों एक बीमार बच्चे के पीछे पड़ जाता है। राष्ट्रपति भवन तक ले जाना चाहता है, समझ नहीं आया। मीडिया में रोज छप रहा है कि बच्चे के रोल में अमिताभ कभी हंसाते तो कभी रुलाते हैं। पर मुझे नहीं दिखा। मुझे समझ नहीं आया कि मैं ये फिल्म क्यों देख रहा हूं।
आमिर की फिल्म 'तारे जमीं...' जैसी बनाने के चक्कर अमिताभ ने जबरदस्त वाहियात फिल्म बना दी। इससे ज्यादा बन नहीं सकती थी। तारीफ मिलनी चाहिए, तो सिर्फ मेकअप को, जिसने एक व्यक्ति का सिर बड़ा बना कर चेहरा ही बदल दिया। लेकिन केवल मेकअप के भरोसे आप पूरी फिल्म नहीं चला सकते। हां कोई पांचेक-दसेक मिनट का दृश्य अवश्य। फिल्म की शुरूआत में जया ने फिल्म में काम कर रहे सभी कलाकारों के नाम सुनाए। आइडिया 'ओम शांति ओम' से लिया, जिसमें फिल्म के अंत में पूरे स्टाफ का पांच मिनट का दृश्य होता है, वह देखने लायक था। जबकि इसे सिर्फ इसलिए देखा गया, कि फिल्म की शुरूआत देखना जरूरी था। अगर फिल्म का कोई भी हिस्सा प्रभावित करता है, तो वह है सिर्फ ओरो की मौत और विद्या-अमोल द्वारा उसके शरीर के चारों तरफ चक्कर काटना। फिल्म के अंत में लगभग आठ-दसेक मिनट का यही दृश्य देखकर आदमी की आंख नम हो सकती है। इन दस मिनट में विद्या ने जो अभिनय कर दिखाया, पूरी फिल्म में कहीं नहीं दिखा। कुल मिलाकर देखा जाए, तो पूरी फिल्म बनाने का एक ही मकसद कि अमिताभ ने तेरह साल के बच्चे का रोल कर बहुत महान काम किया है। आप सबको सलाह अगर फिल्म देखने का मूड हो, तो... अब मैं क्या बताऊं... रहने दो।
आमिर की फिल्म 'तारे जमीं...' जैसी बनाने के चक्कर अमिताभ ने जबरदस्त वाहियात फिल्म बना दी। इससे ज्यादा बन नहीं सकती थी। तारीफ मिलनी चाहिए, तो सिर्फ मेकअप को, जिसने एक व्यक्ति का सिर बड़ा बना कर चेहरा ही बदल दिया। लेकिन केवल मेकअप के भरोसे आप पूरी फिल्म नहीं चला सकते। हां कोई पांचेक-दसेक मिनट का दृश्य अवश्य। फिल्म की शुरूआत में जया ने फिल्म में काम कर रहे सभी कलाकारों के नाम सुनाए। आइडिया 'ओम शांति ओम' से लिया, जिसमें फिल्म के अंत में पूरे स्टाफ का पांच मिनट का दृश्य होता है, वह देखने लायक था। जबकि इसे सिर्फ इसलिए देखा गया, कि फिल्म की शुरूआत देखना जरूरी था। अगर फिल्म का कोई भी हिस्सा प्रभावित करता है, तो वह है सिर्फ ओरो की मौत और विद्या-अमोल द्वारा उसके शरीर के चारों तरफ चक्कर काटना। फिल्म के अंत में लगभग आठ-दसेक मिनट का यही दृश्य देखकर आदमी की आंख नम हो सकती है। इन दस मिनट में विद्या ने जो अभिनय कर दिखाया, पूरी फिल्म में कहीं नहीं दिखा। कुल मिलाकर देखा जाए, तो पूरी फिल्म बनाने का एक ही मकसद कि अमिताभ ने तेरह साल के बच्चे का रोल कर बहुत महान काम किया है। आप सबको सलाह अगर फिल्म देखने का मूड हो, तो... अब मैं क्या बताऊं... रहने दो।